
दोपहर के करीब 1:30 बजे दरवाज़े की घंटी बजी। काला चश्मा पहने, दुपट्टा लपेटे एक महिला मेरे सामने खड़ी थीं। उन्होंने एक पैकेट देते हुए कहा,”पार्सल”।
कुछ सेकंड के लिए तो मेरी समझ में ही नहीं आया कि वह कौन है। आए भी कैसे? आखिर डिलीवरी करनेवाले तो बॉय ही होते है न? ज़ुबान पर ही चढ़ा हुआ है, ‘डिलीवरी बॉय’। ‘डिलीवरी गर्ल’ भी हो सकती हैं, इसका तो कभी ख्याल ही नहीं आया।
जी हां! मेरे सामने खड़ी महिला, दरअसल डिलीवरी गर्ल थीं, पारुल परमार!
पारुल के पति, ठीक-ठाक नौकरी करते हैं। दो बच्चे हैं, एक नौवीं में और एक चौथी में। पारुल सुबह स्कूटी ड्राइविंग क्लास भी चलाती हैं। लेकिन, जब डेढ़ साल पहले उन्हें एक डिलीवरी गर्ल की नौकरी का इश्तिहार दिखा तो उन्होंने तुरंत अप्लाई कर दिया।
मैंने पूछा, “अजीब नहीं लगा? क्योंकि, इसे तो पुरुष प्रधान प्रोफेशन का दर्जा मिला हुआ है हमारे समाज में?”
पारुल ने कहा, “बिलकुल नहीं। बढ़िया जॉब है। कोई समय की पाबंदी नहीं है। आपको बस पार्सल अलॉट होते हैं, आपको जब समय मिले, तब जाकर डिलीवर करना है। हर पार्सल के हिसाब से पैसे मिलते हैं, इसलिए आप जितने डिलीवर कर सकें, उतने ही उठा सकते हैं।
मैं, सुबह 8 से 11 ड्राइविंग सिखाती हूं, फिर डिलीवरी के लिए निकलती हूं। दोपहर के 2 बजे तक सारा काम खत्म हो जाता है। फिर, घर जाकर आराम से बाकी दिन में, घर का काम और बच्चों के साथ समय बिता सकती हूं।
आजकल बच्चों की छुट्टियां हैं तो मैं थोड़े कम पार्सल लेती हूं और जल्दी घर चली जाती हूं। बच्चे भी खुश, हम भी खुश!!
इस तरह मैं सिर्फ चंद घंटों का काम करके, महीने के 10-15 हज़ार रूपये एक्स्ट्रा कमा लेती हूं। मेरे पति अच्छा कमा लेते हैं, लेकिन अब महंगाई के दौर में गाड़ी के दोनों चक्के चलेंगे, तभी तो गाड़ी चल पाएगी न! और फिर, कस्टमर भी कंफर्टेबल होता है। दोपहर में अक्सर औरतें या बच्चे घर पर अकेले होते हैं। ऐसे में फीमेल डिलीवरी करने आए तो वे भी सेफ (सुरक्षित) महसूस करते हैं।”
पारुल का जज़्बा देख, मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनकी एक तस्वीर भी ले ली, ताकि आप सब भी उन्हें सराह सकें 🙂
साथ ही, अपने देश पर भी गर्व हुआ! जिस देश में एक वक्त पर महिलाओं को शिक्षा के अधिकार के लिए भी लड़ना पड़ा था, आज उसी देश की महिलाएं, किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं आंकी जा सकतीं।