
हर साल जब दिवाली आती है,
घर में दीप सजते हैं, रंगोली बनती है, मिठाई की खुशबू फैलती है,
पर दिल का एक कोना ऐसा होता है जो अब भी बुझा-बुझा रहता है।
वो कोना जहाँ पिता की हँसी, पिता की आवाज़, पिता की उपस्थिति अब नहीं है।
याद आता है बचपन का वो वक्त,
जब दिवाली सिर्फ त्योहार नहीं
एक उत्सव हुआ करती थी।
सुबह-सुबह पापा आवाज़ लगाते थे
“चलो बेटा, झाड़ू पकड़ो, घर साफ़ करना है।”
और हमें लगता था कि वो सारा काम बस परेशान करने के लिए करवा रहे हैं।
पर आज जब खुद ज़िम्मेदारी उठाई है,
तो समझ आया वो सिखा रहे थे कि
“सफाई सिर्फ घर की नहीं, दिल की भी ज़रूरी होती है।”
पापा ही वो इंसान थे जो दिवाली के पहले दिन से लेकर
आखिरी पटाखे तक घर का भार अपने कंधों पर उठाए रखते थे।
बाजार की भीड़ में जब हम खो जाने के डर से उनका हाथ कसकर पकड़ते थे,
तो उन्हें शायद यह डर होता था
कहीं ज़िंदगी की भीड़ में हम उनसे छूट न जाएँ।
हर पिता की अपनी एक दिवाली होती है
जहाँ वो खुद के लिए कुछ नहीं खरीदता।
वो मिठाई में पहला टुकड़ा बच्चों को देता है,
नए कपड़े उनके लिए लाता है,
और खुद उसी पुरानी शर्ट में मुस्कुरा देता है।
हमारे लिए वो उनका त्याग था,
पर उनके लिए वो सुकून था।
याद है जब कहते थे
“अगले साल नया टीवी लेंगे बेटा,
या “अगली दिवाली तक पक्का अपनी गाड़ी ले लेंगे।”
हम सिर हिलाते थे, सपने देखते थे।
पर अब जब वो नहीं हैं,
तो दिवाली पर सबसे ज़्यादा याद उन्हीं “अगली दिवालियों” की आती है
जो कभी आ ही नहीं पाईं।
अब दिवाली आती है,
लाइट्स लगती हैं,
माँ मिठाई बनाती हैं,
पर घर में वो “हँसी की आवाज़” नहीं आती,
जो पूरे माहौल को ज़िंदा कर देती थी।
वो जब दीया जलाते थे,
तो जैसे उनके चेहरे की मुस्कान ही घर की असली रोशनी होती थी।
अब वो दीए जलते तो हैं,
पर उनकी लौ ठंडी सी लगती है।
माँ अब भी सजावट करती हैं,
पर हर चीज़ रखते वक्त कहती हैं
“ये वाले दीए तुम्हारे पापा को बहुत पसंद थे।”
और हर बार, दीया जलाने से पहले एक पल रुक जाती हैं…
शायद वो चाहती हैं कि कोई पीछे से कह दे
“अरे ध्यान से, तेल ज़्यादा मत डालो।”
पर अब वो आवाज़ नहीं आती।
कभी-कभी लगता है,
दिवाली अब सिर्फ बाहर की रोशनी का त्योहार रह गई है,
अंदर का उजाला तो पापा के साथ चला गया।
पहले घर में वो दीवारों पर लाइट्स लगाते थे,
अब हम उनकी फोटो के पास एक दीया रखते हैं।
वो फोटो मुस्कुरा रही होती है,
और आँखें नम कर जाती हैं।
कितनी बार सोचते हैं
काश एक बार फिर वही पुरानी दिवाली लौट आए।
जहाँ पापा कहते “थोड़ा बचत करो बेटा, अगले साल और अच्छा करेंगे।”
अब तो बचत भी है, चीज़ें भी हैं,
बस वो साथ नहीं हैं।
हर दीया आज एक याद है।
हर लौ में उनकी मेहनत झलकती है।
हर मिठाई में उनका पसीना घुला हुआ है।
वो जो दिवाली की रात देर तक बाहर बैठते थे,
कभी आसमान देखते, कभी हमें —
जैसे सोचते हों,
“बस बच्चे खुश रहें, बाकी सब ठीक है।”
अब जब खुद पिता बने है,
तो समझ आता है
हर दिवाली में वो कितना कुछ छोड़ देते थे हमारे लिए।
उनके लिए रोशनी का मतलब था
बच्चों के चेहरे पर खुशी।
उनकी अपनी दिवाली तो शायद कभी आई ही नहीं।
आज जब सबके घर चमकते हैं,
तो एक घर ऐसा भी है जहाँ बस उनकी यादें जगमगाती हैं।
जहाँ हर पटाखे की आवाज़ एक टीस बन जाती है।
जहाँ मिठाई खाते हुए गला रुक जाता है।
जहाँ हर मुस्कान के पीछे एक अधूरा संवाद होता है
“पापा, इस बार की भी दिवाली आपके बिना अधूरी है।”
हर साल दिवाली पर पापा कि वो बातें याद आती हैं
“अगली बार गाड़ी लेंगे, अगली बार बड़ा घर लेंगे,
अगली बार तुम सबको कहीं घूमाने ले जाऊँगा।”
पर किसे पता था,
अगली दिवाली वो खुद ही किसी और दुनिया में चले जाएँगे 😭
जहाँ से लौटना कभी मुमकिन नहीं।
और अब हम हर साल वही बातें दोहराते हैं,
माँ के पास बैठकर कहते हैं
“पापा होते तो ये साल कितना अच्छा होता…”
पर माँ बस चुप हो जाती हैं।
वो चुप्पी अब इस घर की सबसे बड़ी आवाज़ बन गई है।
दिवाली अब भी आती है,
दीए अब भी जलते हैं,
पर वो हाथ नहीं जो हर दीए के पीछे एक दुआ रखता था।
वो चेहरा नहीं जो हर रोशनी से ज़्यादा चमकता था।
वो आवाज़ नहीं जो कहती थी
“चलो बेटा, पूजा शुरू करें।”
अब वो पूजा हम करते हैं,
पर हर मंत्र के बीच में एक नाम गूंजता है ” पापा ”
हर फूल चढ़ाते हैं,
तो लगता है जैसे वो वहीं हैं,
बस दिख नहीं रहे।
आपके पिता हैं..
तो इस दिवाली उन्हें गले लगाइए।
कहिए — “पापा, आपकी वजह से ये घर रोशन है।”
क्योंकि जब वो नहीं होते,
तब समझ आता हैं —
बिना पिता के दिवाली सिर्फ एक दिन होता है,
त्योहार नहीं।
और अगर वो अब इस दुनिया में नहीं हैं
तो एक दीया उनके नाम का ज़रूर जलाना,
क्योंकि शायद वो ऊपर कहीं,
उस दीए की लौ में तुम्हें मुस्कुराते हुए देख रहे हों…
🙏🙏