
अब गाँव के मंदिरों में भी भरपूर भीड़ दिखने लगी है।
मेरा व्यक्तिगत आकलन यही है कि यह भीड़ पिछले ही कुछ वर्षों से पुनःजागृत हुई है।
सावन के सोमवार को तो यह भीड़ चरम पर होती है।
भोर से लगी लाइन खत्म होने में शाम हो जाती है अब।
गाँव का शायद ही कोई हिन्दू परिवार हो जिसकी स्त्रियां मन्दिर न आती हों।
गांवों में नियमित मन्दिर जाने की परम्परा अस्सी के दशक तक बनी हुई थी।
स्त्रियां सुबह और शाम को मन्दिर जातीं, तो पुरुष दिन में वहीं समय काटते थे।
दर्जनों त्योहार ऐसे थे कि स्त्रियों का झुंड मंदिरों में एकत्र हो कर उत्सव मनाता था।
मेरी ओर गोवर्धन पूजा, पीड़िया, पंढरकौवा, जिउतिया, तेरस और भी जाने कितने पर्व थे, जब मन्दिर पर ही लोग-लड़कियां जुटते थे।
गाँव की बड़ी पंचायत सामान्यतः
मंदिरों में ही लगती थी।
उस बहाने भी मन्दिर गुलजार रहते थे।
नब्बे के दशक में गांव एडवांस होने लगे और मन्दिर से नाता कम हो गया।
मन्दिर जाना पिछड़ेपन की निशानी हो गयी।
कुछ अनपढों ने तो यह तक कहा कि पढ़ने-लिखने वाले बच्चों को भला मन्दिर से क्या काम?
उन्हें किताबों में ध्यान लगाना चाहिये।
ऐसा कहने वालों को लोग समझदार समझने लगे थे।
यह नब्बे का दशक तो विकृति का दशक था।
ध्यान से देखिये तो पाएंगे, सभ्यता के आंगन में फूहड़पन के अधिकांश खेल तभी से शुरू हुए।
लोक लाज का मिटना, सिनेमा, सङ्गीत आदि में फूहड़पन, सामाजिक ताने बाने का क्षरण…
सब एक साथ ही शुरू हुए।
खैर…
हाँ,
तब भी नवरात्रि के दिनों में लगभग सभी मन्दिर जरूर ही जाते थे,
पर शेष दिनों में सन्नाटा रहने लगा।
साधु सन्यासियों की भी कमी हो गयी।
होगी भी क्यों न,
हम दो हमारे दो वाली मानसिकता में संत कहाँ से आएंगे?
अनेक मन्दिर साधु विहीन हो गए।
अधिकांश मंदिरों में तो गाँव वालों ने किसी गृहस्थ ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया ताकि समय से देव को भोग लग सके।
पुजारी भी केवल पूजा के समय ही उपस्थित रहते, शेष समय मन्दिर बन्द रहता।
बड़े मंदिरों में तब भी भरपूर भीड़ रही।
जो लोग अपने गाँव के मन्दिर में कभी नहीं जाते वे गंगोत्री यमुनोत्री से लेकर रामेश्वरम तक की यात्रा करने लगे।
ऐसा लगने लगा कि बड़े मन्दिर वाले भगवान ही कृपा बरसा सकते हैं।
पर सभ्यता लम्बे समय तक अंधकार में नहीं रहती।
आप धर्म को छोड़ भी दें तो धर्म आपको नहीं छोड़ता।
गाँव के छोटे मंदिरों में लौटती भीड़ उम्मीद जगा रही है।
स्त्रियां लौटी हैं मंदिरों की ओर, बस पुरुष भी लौट आएं तो कोई भय नहीं रहेगा।
इस देश को, यहाँ की प्रजा को धर्म ही एक साथ बांध कर रखता रहा है।
निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं दोस्त।
बर्बरता से संघर्ष करना जितना यह सभ्यता जानती है, उतना किसी को नहीं आता।
जितना ये लड़े उसका हजारवाँ हिस्सा भी कोई दूसरी सभ्यता नहीं लड़ सकी।
सो भय में नहीं, भाव में जियें।