
🔔🔔 राम वन गमन🔔🔔
🌹🌹🌹 भाग 43 🌹🌹🌹
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सज्जनों , श्रीराम , लक्ष्मण को बरगद के दूध से जटा बनाते हुये देखकर सुमन्त्र जी बालक की तरह रो पडे़ –
अनुज सहित सिर जटा बनाए । देखि सुमन्त्र नयन जल छाए ।।
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना । कह कर जोरि बचन अति दीना ।।
सुमन्त्र जी बालक की तरह रो रहे है , हाथ जोडकर अत्यन्त ही दीन वचन मे कहते है , महाराज ! पिता जी ने रथ लेकर मुझे इसलिये भेजा था कि चार दिन वन मे घुमाकर तीनो को वापस ले आऊँ ।आप अब वापस चलिये । इतना सहते कहते सुमन्त्र जी श्रीराम जी के चरणों मे गिर पडे़ । श्रीराम जी ने मन्त्रिवर सुमन्त्र को उठाकर गले से लगा लिया और कहते है – , सुमन्त जी ! आप मेरे पिता के समान हो , धर्म और परमार्थ के ज्ञाता हो – क्या आप मुझसे कहोगे कि पिता माता की आज्ञा तोडकर अयोध्या वापस लौट चलूँ ? मै जानता हूँ —आप मुझे कभी भी धर्म तोडने की आज्ञा नही दोगे । आप वापस अयोध्या जाइये और माता पिता को धैर्य धारण कराइये , उन्हे समझाइयेगा कि राम लक्ष्मण को जैसे अयोध्या मे सुख था वही सुख उन्हे वन मे भी है । चिन्ता बिल्कुल न करे – राम सीघ्र ही चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण करके आयेगें और आप सबकी सेवा करेंगे । लक्ष्मण जी को थोडा क्रोध आ गया और उन्होने कुछ कटु वचन बोला –
पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ।।
श्रीराम जी ने अपनी सौगन्ध देकर लक्ष्मण जी की बात को अयोध्या मे नही कहने के लिये कहा । सुमन्त्र जी ने जान लिया कि राम और लक्ष्मण तो नही लौटने वाले तो उन्होने राजा दशरथ द्वारा कहे गये वचनो के अनुसार सीता को वापस लौटने के लिये कहा –
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया । सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ।।
हे राम ! तुम अगर स्वयं नही चल रहे हो तो कम से कम सीता जी को ही वापस भेज दो । इतनी सुकोमल सीता वन के कष्ट को कैसे सहेगी । राजा दशरथ की यही इच्छा है कि सीता वापस अयोध्या लौट आये – उनकी जैसी इच्छा होगी कभी मायके मे रहेगी कभी ससुराल मे रहकर चौदह वर्ष बिता लेगी । इसलिये हे राम ! तुम सीता जी को ही वापस भेज दो ।
मित्रों – श्रीराम जी ने सीता जी से पिता जी का संदेश कहकर स्वयं अपनी तरफ से भी निवेदन किया कि सीते ! यदि तुम घर लौट जाओ तो अयोध्या मे सबकी चिन्ता मिट जाय । श्रीराम जी के वचनो को सुनकर माता सीता कहती है – स्वामी ! आप से तो मै पहले ही निवेदन कर चुकी हूँ कि *शरीर को छोडकर छाया अलग कैसे रह सकती हैं ?* सूर्य की किरण सूर्य को छोडकर कहाँ जा सकती है ? हे स्वामी मै आपकी आज्ञा लेकर मन्त्री जी से कुछ कहना चाहती हूँ । पूज्यवर ! आप मेरे पिता जी एवं श्वसुर के समान मेरा हित करने वाले हैं । मुझे छमा करना — आज मै आपके सम्मुख बोलने की घृष्टता कर रही हूँ –
आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात ।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात ।।
हे तात ! मै आर्त होकर ही मर्यादा तोड रही हूँ – स्वामी के चरणकमलो के बिना जगत मे जहाँ तक नाते है सभी मेरे लिये व्यर्थ है । मैने इतनी आयु मे संसार के समस्त सुखो का उपभोग कर लिया है , मैने अपने पिता का ऐश्वर्य एवं अपने श्वसुर का पराक्रम भी देखा है , सभी प्रकार के ऐश्वर्य भी हमे श्रीराम जी के चरणों के बिना तुच्छ लगते है । आप मेरी ओर से सास श्वसुर के पाँव पकडकर विनती करियेगा , वे मेरी चिन्ता न करें । मेरे साथ तो मेर प्राणनाथ एवं वीर शिरोमणि लक्ष्मण जी है भला मुझे क्या कष्ट हो सकता है ।
सज्जनों -सीता जी के वचनो को सुनकर सुमन्त्र जी व्यथित होकर शरीर की सुध बुध खो बैठे । किसी तरह समझा बुझाकर सुमन्त्र जी को रथ पर बिठाकर बिदा करते है । रथ मे लगे घोडे़ अयोध्या की तरफ जाने को तैयार ही नही है । सुमन्त्र जी को होश ही नही है । शरीर तो रथ मे पडा़ है मन श्रीराम जी के पास है । घोडे चिघाड रहे है । श्रीराम जी , लक्ष्मण और सीता जी के साथ गंगा जी के किनारे आ पहुँचते हैं । साथ मे निषादराज भी हैं । श्रीराम जी ने निषाद राज से पूँछा – मित्र ! गंगा पार करना है — कैसे होगा ? आज तो घाट पर एक भी नाव नही दिख रही है । क्या बात है ? निषादराज ने कहा , महराज ! वो देखो सामने कुछ दूर पर केवट नाव लिये खडा़ है , उसी को बुलाओ । श्रीराम जी केवट को पुकारते है ——
किस प्रकार केवट को बुलाया श्रीराम जी ने ? केवट प्रेम की कथा —— अगले सत्र मे ——- तब तक —— जय जय सीताराम जय जय राधेश्याम
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