
प्रायः मैंने देखा है कि मेरी पोस्ट पर कुछ लोग कमेन्ट में पुलिस पर अनेक आरोप और शिकायतें करते रहते हैं। अब न तो मैं कोई पुलिस का आधिकारिक प्रवक्ता हूँ और न इतने बड़े पद पर हूँ कि उन समस्याओं का समाधान कर सकूँ। लेकिन पुलिस में रहते हुए मैंने जो अनुभव किया उस पर एक लेख।
पुलिसिंग की सच्चाई — खाकी की पीड़ा, खामोश कर्तव्य
दरअसल, पुलिसिंग कभी आसान नहीं रही। ज़रा कल्पना कीजिए, एक ऐसा थाना जहाँ पूरा स्टाफ पूरी ईमानदारी और मेहनत से काम कर रहा हो।तो क्या लोग एकदम संतुष्ट होंगे?
हर मामले में दो पक्ष होते हैं — और भले ही पुलिस पूरी निष्ठा से काम करे, वह केवल पचास प्रतिशत लोगों को ही संतुष्ट कर पाएगी।
बाकी पचास प्रतिशत लोग, सच चाहे कुछ भी हो, यही कहेंगे — “पुलिस ने पैसे खा लिए”, “विपक्षी से मिल गई”, “ऊपर से दबाव है”।
दरअसल जो पक्ष ग़लत होता है, वह अपनी ग़लती स्वीकार नहीं करता, बल्कि पुलिस पर ही आरोप मढ़ देता है।
कभी-कभी, कुछ स्थानों पर पुलिस के व्यवहार या जल्दबाज़ी के कारण हम उन संतुष्ट लोगों में से भी कुछ को और नाराज़ कर बैठते हैं।
हत्या, लूट या बलात्कार जैसे संगीन मामलों में शिकायतें कम आती हैं क्योंकि वहाँ सच्चाई और सबूत स्पष्ट होते हैं।
पर ज़मीनी विवादों में सबसे ज़्यादा असंतोष देखने को मिलता है — जहाँ पुलिस के पास अधिकार सीमित हैं। ऐसे मामलों में पुलिस केवल यथास्थिति बनाए रख सकती है, शांति व्यवस्था सुनिश्चित कर सकती है, पर किसी का “कब्ज़ा दिला” नहीं सकती।
एक पक्ष चाहता है कि पुलिस उसका पक्ष ले ले, दूसरा चाहता है कि उसका कब्ज़ा बना रहे — ऐसे में कोई भी निष्पक्ष निर्णय दोनों को खुश नहीं कर सकता।
कमोबेश यही स्थिति मुकदमा दर्ज करने में भी रहती है, जिसके खिलाफ लिखा गया वो कहता है कि पुलिस दूसरे पक्ष से मिलकर उनके खिलाफ फ़र्ज़ी मुकदमा लिख दिया। नहीं लिखा तो पुलिस दूसरे पक्ष से मिल गई है, पैसा खा लिया है इसलिए मुकदमा नहीं लिख रही है।
पुलिस और अन्य विभागों में यही सबसे बड़ा फर्क है। बिजली, बैंक या अस्पताल में लोग अपनी समस्या लेकर जाते हैं और समाधान की उम्मीद करते हैं। पर पुलिस के पास आने वाली हर समस्या में एक दूसरा पक्ष भी होता है — और वही विवाद का केंद्र होता है।
इसलिए चाहे जितनी ईमानदारी से काम किया जाए, एक पक्ष असंतुष्ट रहेगा ही, और पुलिस पर तरह-तरह के आरोप लगाएगा।
यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारे विभाग में कमियाँ हैं — बहुत हैं।
लेकिन यह भी सच है कि हमारे यहाँ कार्यवाही सबसे तेज़ होती है।
शिकायत पर लाइनहाज़िरी, निलंबन या तबादला जितनी जल्दी पुलिस विभाग में होता है, शायद ही किसी अन्य विभाग में होता हो। और गंभीर मामलों में पुलिस वालों के विरुद्ध मुकदमा तक दर्ज हो जाता है।
हमारे व्यवहार को लेकर भी शिकायतें रहती हैं। लेकिन यह भी सोचना चाहिए कि किन परिस्थितियों में एक पुलिसकर्मी काम करता है —
त्योहारों पर जब सब परिवार के साथ छुट्टियाँ मना रहे होते हैं, तब पुलिसकर्मी सड़कों पर खड़ा होता है।
भीषण ठंड में रातभर जागना, तपती गर्मी में सड़क पर खड़ा रहना, बरसात में भीगते हुए गश्त करना — यही उसकी दिनचर्या है।
इसके साथ ही अपराध नियंत्रण, अपराधियों की धरपकड़, घटनाओं का अनावरण, मुकदमों की विवेचना, कोर्ट के काम और अनगिनत प्रार्थना पत्रों की जाँच, VIP ड्यूटी, त्योहार, जुलूस — यह सब बिना रुके चलता रहता है।
लंबी ड्यूटी, कम छुट्टियाँ या जरूरत पर छुट्टी न मिलना, और परिवार से दूरी — ये सब उसके चिड़चिड़ेपन या थकान की वजह हैं, न कि उसकी संवेदना की कमी।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इतनी मेहनत, त्याग और निरंतर ड्यूटी के बाद भी समाज और मीडिया हमें वो सम्मान नहीं देते जिसके हम हकदार हैं।
हर समय आलोचना, हर घटना के बाद अविश्वास और नकारात्मकता — यही हमारी स्थायी संगत बन गई है।
किसी एक पुलिसकर्मी की गलती पूरे विभाग पर आरोप बन जाती है, जबकि हज़ारों ईमानदार कर्मियों का परिश्रम, जनसेवा और त्याग अक्सर अनदेखा रह जाता है।
जो दिन-रात सड़कों पर है, उसी पर सबसे ज़्यादा सवाल उठते हैं।
फिर भी हम भूल जाते हैं कि पुलिस किसी अलग समाज से नहीं आती। यहाँ कोई वंशानुगत परंपरा नहीं — यह भी हमारे जैसे ही आम लोग हैं, जो इसी समाज से निकलकर “खाकी” पहनते हैं।
फिर भी, हम शिकायत नहीं करते। क्योंकि हमें पता है — खाकी सिर्फ़ वर्दी नहीं, एक व्रत है।
यह समाज की सुरक्षा की वह डोर है, जो आलोचना के बीच भी दृढ़ रहती है।
और शायद इसी का नाम है — कर्तव्य पर विश्वास, आलोचना के बीच भी संतुलन बनाए रखना।
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