
बख़री

आज शहरों की ऊँची ऊँची अट्टालिकाओ में रहने वाले लोग क्या जाने कि बख़री क्या होती है ?
ओसारा ,दरवाज़ा ,उत्तर वाला भित्तर ,पुरुब वाला भित्तर ,आजी क घर ,चाची क घर आदि होते थे ।
जब कभी बियाह ग़वन पड़ता था तो आजी छोटके के तारा से मिट्टी मंगवाती थी जिसे “पिड़ोर “कहती थी ।
पक्के मकान में प्लास्टिक पेंट लगकर भी वो चमक नही आती है जो कच्ची बख़री में पिड़ोर लगने के बाद आता था ।उस पर बड़की बुआ छोटकी बुआ कपड़े और नीम की दातून से ब्रश बनाकर सुग्गा और चिरई बनाकर शुभ विवाह लिख देती थी ।देखने वालों को लगता था कि इनके घर पर शादी है ।
पक्के घर पर पेंट करवाने के बाद एक अलग तरह की गंध आती हैं किंतु कच्ची बख़री में पुताई करवाने के बाद एक सोंधी सोंधी ख़ुश्बू आती है ।आज भी वो ख़ुश्बू ह्रदय तल में समाईं हुई है
कितनो को याद भी होगा जिनका बचपन बख़री में गुज़रा हुआ है ।आज के बच्चों को क्या पता ?आला किसे कहते है ?
अलगनी का क्या काम है ?जाँत ,काणि ,चकरी ,ओखरी ,मूसर जैसे यंत्रो का क्या उपयोग होता था और किस वस्तु का नाम है ?
ताखा ,भंडरिया का क्या काम है , ढेबरी किसे कहते है
माना कि आज की तरह सीएफ़एल लाइट नही है किंतु ढेबरी दिए की रोशनी के आगे ये फीके से लगते है ।हमारे यादों के बीच में ढेबरी का भी महत्वपूर्ण स्थान है
शाम के समय आजी दिया में तेल डालकर बाती सही करती थी ।
शाम होने से पूर्व ही दरवाज़ा के बाहर नगरौटा पर एक दिया जलाकर रखती थी और पूरे सम्मान के साथ आँचल को फैलाकर पता नही क्या मन ही मन बुदबुदाती थी ये आज उनके जाने के बाद भी रहस्य बना हुआ है ।
मुझे याद आता है एक बार मटरुआ ने कैसे मुँह से फूँक मारकर दिया बुझाया था परिणाम स्वरुप बडकी माई ने कैसे उसको फूंकनी से मारा था ।
लोग अनपढ़ अवश्य थे आपकी ये बात तो मैं मान सकता हूँ किंतु अनुभवी बहुत थे इसको आपको स्वीकार करना ही होगा ।
पहले लोग व्यवहारिक थे आज मतलबी है बस यही अंतर है ।
हम वो भाग्यशाली पीढ़ी है जिनका जीवन बख़री में बीता है ।हमने ढेबरी के प्रकाश में पढ़ाई किया है ।
बख़री की एक ख़ासियत ये भी है की सर्दियों में गर्म रहता है और गरमियों में ठंडा रहता है ।
आज तकनीक अपने चरम पर है पर हमारे बुज़ुर्गों के ज्ञान के सामने कहीं भी नही टिकता है