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*आत्मा को खोज*
बारह यात्री थे। वे एक नगर से दूसरे नगर को जा रहे थे। आगे बढ़े तो एक नदी आ गई। कोई पुल नहीं , कोई नाव नहीं। पार तो पहुँचना ही है , परंतु कैसे ?
उनमें से एक सयाना था। वह बोला – ” घबराओ नहीं ! एक-दूसरे का हाथ थाम लो। मिलकर हम पार हो जाएँगे। ”
सबने एक-दूसरे के हाथ कसकर पकड़ लिये। सावधानी से नदी पार करके दूसरे किनारे जा पहुँचे। स्याना व्यक्ति बोला – ” अब गिनती करके देख लो , कोई नदी में तो नहीं रह गया ? ”
दूसरा बोला – ” सबसे बुद्धिमान तू है , अब तू ही गिन। ”
स्याना गिनने लगा – ” एक , दो , तीन , चार , पाँच , छः , सात , आठ , नौ , दस , ग्यारह। ” स्वयं को उसने गिना ही नहीं। चौंककर बोला – ” हम तो ग्यारह हैं ! एक साथी कहाँ गया ? ”
दूसरे ने गिना तो अपने-आप को भूल गया। इस तरह तीसरे , चौथे और बारी-बारी से सभी ने ग्यारह ही गिने। रोने लगे कि एक साथी
तभी एक यात्री आ गया। उसने उनके रोने का कारण पूछा।
स्याने ने सारी बात कह बत
यात्री ने उन्हें देखते हुए मन में गिना तो वे बारह थे।
उसने कहा –
” यदि मैं तुम्हारे बारहवे साथी को खोज दूँ , तो ? ”
वे बोले –
*” तब तो हम तुम्हें भगवान् मान लेंगे। “*
यात्री बोला – ” तुम सब बैठ जाओ। मैं एक-एक को चपत मारूँगा। जिसे चपत लगे , वह क्रम से एक , दो , तीन गिनता जाए। ”
इस तरह यात्री चपत मारता गया और वे लोग एक से बारह तक गिनते गए। अंत में बोले – *तुम सचमुच भगवान् हो !*
आपको इन यात्रियों पर हँसी आती है ,
परंतु हम स्वयं भी इसी मूर्खता के शिकार हैं।
पाँच *कर्मेन्द्रियाँ* , पाँच *ज्ञानेन्द्रियाँ* और
ग्यारहवें *मन* को तो हम पहचानते हैं , परंतु बारहवें *आत्मा* को हम भुला बैठे हैं। हम दुनिया-भर के बखेड़े करते हैं ,
किन्तु *आत्मा* के लिए कुछ नहीं करते।
ग्यारह की तृप्ति में ही डूब गया है ,
तभी तो मनुष्य दुःखी और अशान्त है।
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