
ना तो कारवां की तलाश है”
में कितनी बार आया था
“इश्क़”
और क्यों थे रफी साहेब श्रेष्ठतम गायक जानिए मन्ना डे जी से
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कोई दस बारह साल पुरानी बात है , मैनें बंगलौर में मन्ना डे जी से उनके निवास पर फिल्म संगीत पर लंबी बात की थी । कई बातें उनसे जानी जैसे किसी गीत की लोकप्रियता और उसके कालजई होने के पीछे कौन कौन से तत्व सबसे अहम भूमिका निभाते हैं । हिंदी फिल्म संगीत में आपकी दृष्टि से कौन हैं श्रेष्ठ गायक । उनके गाए कई फिल्मी गीतों पर विस्तार से बात हुई और उसी क्रम में ” बरसात की रात ” मशहूर कव्वाली “ना तो कारवां की तलाश है” पर भी कुछ सवाल पूछे थे जिसकी कल इस लेख के पहले भाग में पूरे 12 मिनट की कव्वाली के एक एक बंद की विस्तृत विवेचना का प्रयास किया था है मैनें। हालांकि लेख बड़ा हो जाने के कारण कम लोगों ने उसे पढ़ा । आज इस लेख के दूसरे भाग में जानिए इस कव्वाली से जुड़ी कुछ और रोचक बातें …. (ये बातचीत के सिर्फ कुछ अंश है )
प्रश्न : किसी फिल्मी गीत की लोकप्रियता और कालजई होने के पीछे किसका रोल अहम होता है ?
जवाब : गीत की धुन , गीतकार के शब्द , गायक /गायिका का मधुरिम स्वर और उनके गाने का अंदाज ही गीत को लोकप्रिय और कभी कभी तो कालजई बनाने में अहम रोल अदा करते हैं। संक्षेप में कहें तो जो गीत मन को गहरे तक छुए यानि “अपील” करे वही गीत लोकप्रिय हो पाता है ।
प्रश्न :लेकिन संगीतकार , गीतकार और गायक में से किसी एक को चुनना हो तो आपकी दृष्टि से कौन सा तत्व “अपील” को “असरदार अपील” में तब्दील कर देने की क्षमता रखता है ?
जवाब: संगीतकार और गीतकार की सर्जना से जन्में गीत की आत्मा में गाने वाला कितना डूबा है , उसका स्वर कितना स्थिर है, उसकी एकाग्रता कितनी गहन है । दूसरे शब्दों में कहें तो गीत की धुन और गीत के भावों के साथ वह कितना एकाकार हो सका । उसके गायन का रागात्मक असर हमें किस हद तक कलात्मक रसानुभुति का स्वामी बनाती है इस पर निर्भर करता है कि गीत कितना लोकप्रिय और कालजई होगा।
प्रश्न :अच्छा बताइए आपके हिसाब से हिन्दी सिनेमा में आप श्रेष्ठतम गायक किसे मानते हैं ।
जवाब:एक मिनट का भी वक्त लिए बगैर बोले “रफी साहेब” !
हालांकि सभी की अपनी अपनी विशिष्ठताएं थी लेकिन रफी साहेब की श्रेष्ठता का सवाल है , मैं उनका कायल इसलिए भी था कि उनके भीतर जो “परकाया प्रविष्टि” की विशिष्ठता थी वैसी उस दौर के किसी भी गायक में नहीं थी । वो जब दिलीप के लिए गाते तो दिलीप बन जाते ,देवानंद के लिए गाते तो देवानंद , शम्मी कपूर के लिए गाते तो शम्मी और जॉनी वाकर के लिए गाते तो जॉनी बन जाते ।ये हममें से किसी के बूते की बात नहीं थी ।ये उनके भीतर ईश्वर प्रदत्त गुण था ।
प्रश्न:और रफी साहेब के बाद ?
जवाब : थोड़ा संयत होकर आगे पायदानों के दावेदारों में जो नाम उन्होंने लिए उनका क्रम ये था : मन्ना डे, मुकेश , तलत महमूद , हेमंत कुमार , किशोर कुमार ।उन्होंने यह भी कहा हालांकि व्यक्तिगत रूप से उन्हें के एल सहगल और एसडी बर्मन की आवाज सबसे ज्यादा अपील करती थी ।
प्रश्न :. “ना तो कारवां की तलाश है” कव्वाली में “इश्क” कितनी बार गाया गया ।
जवाब : मन्ना डे फौरन बोले : 86 बार गाया गया था इश्क शब्द और साहिर ने इसका ऐतिहासिक महत्व भी बताया था कि हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में किसी भी गीत में एक शब्द इतनी बार नहीं आया।
प्रश्न.:इसकी रिकॉर्डिंग कहां हुई और कितना वक्त लगा ?
जवाब : इसकी रिकॉर्डिंग महा लक्ष्मी के पास फेमस स्टूडियो में हुई थी ।संगीतकार रोशन जी चाहते थे कि इसकी रिकॉर्डिंग में कोई बाहरी शोर का लेशमात्र भी दखल न हो इसलिए इसकी रिकॉर्डिंग रात 12 बजे के बाद ही जब लोकल ट्रेन की भी आवाजाही बंद हो । हालांकि स्टूडियो शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक तक बुक किया गया था। सभी गायक कलाकार और साजिंदे ( जिनकी संख्या 50 के ऊपर रही होगी) शाम को ही जमा हो गए थे । रोशन साहेब भी 6 बजे आ गए थे और सुबह 3 बजे जा कर रिकॉर्डिंग पूरी हुई । रिकॉर्डिंग को दोबारा सुनते ही अहसास हो गया था ये हिंदी सिनेमा के इतिहास की श्रेष्ठतम कव्वाली होगी ।बल्कि इसकी अमीर- गरीब , पढे- लिखे और अनपढ़ लोगों के बीच समान लोकप्रियता को देखते हुए मैं तो इसे हिंदी सिनेमा का सर्वकालिक श्रेष्ठतम गीत मानता हूं । फिर आगे बोले इतनी रात साजिंदे जो अधिकांश धारावी झोपड़ पट्टी में रहते थे कैसे जाते तो उनके आग्रह पर इस ऐतिहासिक कव्वाली को हम सबने रिकॉर्डिंग खत्म हो जाने के बाद भी सुबह 6 बजे तक गाने का लुत्फ उठाया । रोशन साहेब ने सबके खाने पीने का इंतजाम करने के लिए फेमस स्टूडियो वालों को बोल दिया था । सच में मेरे लिए यादगार बन गई थी ये रिकॉर्डिंग ।
आखिर में एक चुभता सवाल भी मैने उनसे पूछ डाला था कि…
प्रश्न: शास्त्रीय संगीत में आप जितने पारंगत है उतना कोई न था फिर आपने “ना तो कारवां की तलाश है” में रफी से हारने वाला गीत क्यों स्वीकारा ?
मन्ना डे जी के इस जवाब ने मुझे आश्चर्य चकित नहीं, मंत्रमुग्ध कर दिया था:
जवाब : देखिए हमारा वो दौर हार जीत के “ईगो” से परे था । हमारा सबसे बड़ा धर्म संगीत ही था। रफी से मन्ना डे हार जाते थे ( न तो कारवां की तलाश ) , मन्ना डे से भीमसेन जोशी जी ( केतकी गुलाब जूही चंपा वन फूले ) और पलुस्कर से अमीर खां साहेब ( आज गावत मन मेरो झूम के ) तो ” ना तो कारवां की तलाश” में अगर रफी से मन्ना डे हार जाते हैं तो इसमें ईगो का क्या स्थान । सभी अपनी अपनी जगह अच्छे थे सबकी अपनी अपनी विशिष्ठताएं थी । कहीं किसी से आगे निकल जाने की प्रति स्पर्धा का भाव दूर दूर तक नहीं दिखाई देता था । बस अच्छे से अच्छा संगीत देना है यही ध्येय था सबके मन में !
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सौजन्य से🙏🏻💐
—– कृष्ण कुमार शर्मा :नई दिल्ली ——-