*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*घरों पे नाम थे- नाम के साथ ओहदे भी थे*!!——??
*बहुत तलास किया पर कोई आदमी न मिला*!!—-??
सामाजिक धरातल पर भारतीय संस्कृति आधुनिकता की तेज आंधी में बर्बादी की चौखट पर सिसक सिसक कर दम तोड रही है।इन्सानियत हर उस शख्स से दूरी बना रही जिनके चेहरा पर चेहरा लगा हुआ है।परिवर्तन की पराकाष्ठा से आज आस्था का समन्दर प्रदूषित हो गया है! समरसता की उठती लहरें चाहत की सफ़ीना से टकरा टकरा जिस तरह का शोर कर रही है उससे आने वाले कल में तबाही लिए सुनामी आने के संकेत मिल रहे है।स्वार्थ की बस्ती में खुद की पहचान खुद के मकान पर नाम लिखकर बताई जाती है!अब वो जमाना गया जब लोगो की पहचान उनके ईमान व शान से हुआ करता था। गांव खंडहर में तब्दील हो रहे हैं, शहर, कस्बा बाजार, रोज गुलजार होते जा रहे है!अब वह बोली की मिठास लोगों के जुबान से खत्म होती जा रही है जिनसे अपनत्व का बोध होता था!सम्बन्धों को समर्पित कर सद्भाव लिए दिल के लगाव से सम्भाव के साथ लोग अपने अहमियत कोआत्मसात करते थे।जितना बड़ा परिवार उतना बड़ा नाम होता था।!आज की हवेली उस मिट्टी के मकान का मुकाबला नहीं कर पा रही जो समरसता, सम्भाव, लगाव,के साथ दिल की दौलत से आबाद हुई थी! जिसमें शुकून,का साम्राज्य रहता था? धन लक्ष्मी मुस्कराती थी भारतीय संस्कृति कुलांचे भरती थी!आज की हवेली जो मतलब परस्ती के ईट गारे से तैयार हुई है उसमें न इन्सानियत है न चाहत है न किसी अपनों को राहत है! शुकून भी शराबी बनकर तबाही का खेल कर रहा है!कंक्रीट के मकान में रहने वालों के दिल भी पत्थर का हो गया है। सही किसी शायर ने लिखा है!- पत्थर दिल लोगो की बस्ती में कोई भी इन्सान नहीं!!, सबका दिल है तन्हा तन्हा कोई भी मेहमान नहीं!! सावन का मनभावन महीना शुरु हो चुका है मगर गांव में विरानी का नजारा है! कभी सुबह से शाम तक मठ, शिवालय, मन्दिरो पर श्रद्धालुओं की भीड़ देखने को मिलती थी देवालय शिवालय सजाए जाते थे वहीं आज वही मायूसी का पहरा है कारण है अब नये जमाने के लोग हैं पुरानी पीढ़ी खत्म हो रही है धर्म पर कुतर्क करने वालों की जमात विज्ञान के नाम पर अज्ञानता के अन्धेरे में भटक रही है! उनको न अपना असतित्व पता है न ब्यक्तिव प्रभावी है। हालात यह है कि जो पढ़ लिखकर नौकरी की तलास में शहर के लिए निकला वह शहर का ही बाशिन्दा बनकर रह गया! गांव उन्हें अब राश नहीं आता!घर परिवार अब खास नहीं लगता। मां बाप , गांव के लोग गंवार लगते हैं! रिश्तों के मायने बदल गये!,आखरी सफर के तन्हाई भरे रास्ते पर अपनों की तलास में पल पल गुजारने वाले जो गुमनाम चले गये उनके वह आलीशान मकान खंडहर में बदल गये!सारी शोहरत इज्जत दफ्न हो गयी? फिर भी मकान के खंडहर गुजरे जमाने की कहानी बनकर लोगों के बीच चर्चा में आज भी कायम है।?- तेजी से हो रहे बदलाव में जो कुछ देखने को मिल रहा है उसमें दिखावा की परम्परा परवान चढ़ रही है। सावन की हरियाली में बाग बगीचों में पड़ने वाले झूले, कल की बात होकर रह गये! न बाग बगीचे बचे न अब वह कोकील कंठ से कजरी के गान रहे! न खेतों में अब रोपाई करती महिलाओं के झुन्ड न उनके स्वर लहरियो के बीच से निकलते पुरातन परम्परा के भारतीय संस्कृतियों के पहचान रहे? हर तरफ विरानी का मंजर है! उपर से मुस्कराता चेहरा पर हर आदमी अन्दर छिपा खंजर है? गांवों की बदलती तस्वीर भारत के तकदीर में नासूर बन रहा है! भारतीय संस्कृति गांवों में विकसित होकर गांवों में ही आधुनिकता के आडम्बर में फंसकर शहीद हो रही है।वर्तमान करवट बदला है!- अब इस सदी में तमाम त्राशदी को झेलने के बाद पुरातन परम्परा को आक्सीजन मिलने लगा है! लेकिन काफी देर हो चुका है! सम्हलने में देर लगेगी! फिर भी उम्मीदों के पंख फड़फड़ाने लगे हैं!शायद विकाश की बदलती तस्वीर गांवों की तकदीर में तरक्की की नई तहरीर के साथ ही पुरातन धरोहर को पुरातन संस्कृति को,नई पीढ़ी भारत के वजीर के लगातार सद्भावी प्रयास से गांवों में ही भविष्य की बुलन्द इमारत का आभाष करा दे। जिस तरह से जागरूकता लोगों में बढ़ी है उससे उम्मीदों के बादल उमड़ने घुमड़ने लगे हैं।भारतीय संस्कृतियों के उत्थान में वर्तमान प्रवाहमान है अब दुनिया देख रही है तेजी से बदल रहा हिन्दुस्तान है।——–??
जगदीश सिंह सम्पादक
राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत -7860503468