
तपस्विनी जनक दुलारी देवी
जनक दुलारी का जन्म श्री हेमन राम (बरनवाल), ग्राम हलधरपुर, मऊ, उत्तर प्रदेश में उनके पांचवी संतान के रूप में दिनांक 05.09.1962 को हुआ था। जनक दुलारी बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति की और शिव भक्त थीं। वो पढ़ने में कुशाग्र थीं और 1977 में हाई स्कूल की परीक्षा उन्होंने सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण की थी।
जनक दुलारी के जन्म समय के बारे में कहा जाता है कि उस समय कोई भी ग्रह असहयोगी नहीं था। ऐसी ग्रहों की स्थिति जातक को राजसी सुख देती है या फिर विरक्ति भाव की तरफ ले जाती है। जनक दुलारी का झुकाव विरक्ति भाव की तरफ तो शुरू से ही था लेकिन उनके बड़े भाई व्रजानंद की अकस्मात मृत्यु ने जैसे उनके लिए इसी रास्ते का निर्धारण कर दिया। 21 मई 1977 को भाई के मृत देह को देखते ही वो विक्षिप्त हो गईं और इसी अवस्था में उन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हुआ। उन्हें भाई की पिछले 4 जन्मों से मोक्ष प्राप्ति हेतु भटक रही आत्मा का ज्ञान भी हुआ। जनक दुलारी ने 21 मई 1977 से अन्न का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया और तीन से चार दिन में थोड़ा दूध, फल इत्यादि परिवार की आर्थिक स्थिति अनुसार लेकर रहने लगीं।
26.10.1977 को वाराणसी जा कर गंगा स्नान की उनकी इच्छा हुई। अपने भाई, गुरु महाराज और एक परिवार के घनिष्ठ व्यक्ति के साथ वो वाराणसी गईं। सांप्रदायिक तनाव के कारण कर्फ्यू लगे होने के बावजूद जनक दुलारी के कहे अनुसार उन्हें ना किसी पुलिस प्रशासन ने, ना ही किसी उपद्रवी ने दशाश्वमेध घाट जाने से रोका जबकि सुनसान रास्ते में सिर्फ ये 4 लोग ही चल रहे थे।
30.10.1977 को वाराणसी से वापस आने के पश्चात इन्होंने अपने वस्त्र उतार कर भाई के श्राद्ध से बचे मारकीन के कोरे टुकड़े को धारण कर लिया। मां से उन्होंने आग्रह किया कि दस दिनों तक उनका कमरा ना खोला जाए। 04.11.1977 की रात्रि में बंद कमरे से तीन बार आवाज आई “मां दरवाजा खोलो।” घर वालों ने अंदर से कोई आवाज ना आने के कारण दरवाजा तोड़ दिया। जनक दुलारी कमरे के अंदर मृत पड़ी थीं। परिवार शोकातुर हो कर अंतिम क्रिया की तैयारी करने लगा जब कोई पौने घंटे के बाद जनक दुलारी उठ पड़ीं और उनके मुख से शिव पुराण के श्लोक फूट पड़े। जनक दुलारी ने साधारण भाव से ही अपने परिवार वालों से कहा “तुम लोगों ने मेरी तपस्या भंग कर दी। समय से पूर्व दरवाजा खोल कर मुझे इस शरीर में वापस आने पर बाध्य कर दिया।” जनक दुलारी ने ततपश्चात मौन धारण कर लिया।
हठ योग के साथ की जा रही तपस्या के अंतर्गत फरवरी 1978 से जनक दुलारी ने सभी शारीरिक क्रियाएं मल मूत्र त्याग, भोजन जल ग्रहण करना यहां तक की निद्रा का भी पूर्णतः त्याग कर दिया।
10 जुलाई 1978 तक इनकी ख्याति सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक फेल गई थी और हजारों को संख्या में दर्शनार्थी नित्य पहुंचने लगे थे। सभी समाचार पत्रों में देवी जी के बारे में खबर छापने लगी थी। प्रशासन को भीड़ के नियंत्रण के लिए विशेष पुलिस बल तैनात करना पड़ रहा था। इस क्रम में दर्शनार्थियों को कई विज्ञान से परे घटनाएं देखने को मिलीं जैसे कमरे को खुद बखुद खुलना और बंद होना, मुखमंडल पर स्वतः चंदन टीके का लगना इत्यादि शामिल हैं। एक वर्ष से ज्यादा समय तक अन्न जल ग्रहण किए बिना, हठ योग करते हुए शिवोपासना में लीन रहते हुए दिनांक 18 मार्च, 1979 को देवी जी ब्रह्मलीन हुईं। उन्हें 24 मार्च 1979 को संत परंपरानुसार हलधरपुर में ही समाधिस्थ किया गया।
नास्तिक विचार धारा के कई लोगों को यह लग सकता है कि देवी जी के परिवार ने आर्थिकोपार्जन हेतु ये सब किया हो। लेकिन देवी जी के भाई शिवानंद ने असीम आर्थिक चुनौतियों के बीच भी, दर्शनार्थियों के प्रयासों के बावजूद किसी भी प्रकार के चढ़ावे को कभी स्वीकार नहीं किया और अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार देवी जी को उनके मार्ग में आगे बढ़ने हेतु कार्य करते रहे।
आज हलधरपुर में तपस्विनी जनक दुलारी देवी जी का एक छोटा सा मंदिर है जो आज पास के लोगों के लिए अटूट श्रद्धा का केंद्र है। वहां हर वर्ष शिवरात्रि पर एक मेले का भी आयोजन होता है जिसमें भारी संख्या में भक्त उपस्थित होते हैं। वक्त की मांग है कि बरनवाल समुदाय अपनी इस महान विभूति के मंदिर के विकास के लिए कार्य करे।
(महासभा के 45वीं अधिवेशन की स्मारिका से)