
सम्पादकीय
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
मुस्कराने की वजह अब याद नहीं रहती!
पाला है बड़े नाज से मेरे गमों ने मुझे!!
आहिस्ता आहिस्ता उम्र के वर्षांत का मौसम उतरने लगा है!
विरानी ज़िन्दगी में दुर्भाग्य की चंचल चपला की डरावनी चमक रह रह कर आने वाले कल में भयानक तूफान का संकेत देने लगी है!
झंझावात करती चौमुखी बहती बदलाव की हवाएं उन्मादी उत्पात मचाने को आतुर है!
अहर्निस आगे बढ़ती उम्र का सफर अस्ताचल में जाते सूरज की तरह लुका छिपी का खेल खेलने लगी है!
चारों तरफ गहन अन्धकार का आवरण सशंकित मन में खौफ का मंजर पैदा करने लगा है !
वक्त है साहब कब हीरो से जीरो बना दे पता ही नहीं चलता!
पावस ऋतु के उफनाती नदी के तरह कभी अथाह होने का दंभ लिए हुंकार करती है जिन्दगी तो कभी पानी उरते ही जीवन की तलहटी में दुर्भाग्य कुलांचे भरने लगता है!
थके हुए पथिक की भांति विश्राम का सपना संजोए सिसकते हुए तन्हाई के आश्रम का सहभागी बन जाना नियति के खेल में शामिल हो जाता है।
क्या कभी सोचा है जीवन का रंग भी ऋतुओं के तरह बदलता है!
जरा सोचें अवतरण से लेकर आखरी सफर तक के गुजरे कल के यादों का कारवां जब तन्हाई भरे आलम में अश्कों के सैलाब में बह निकलता हैतब सिहरन पैदा करता निशा का वह पल पश्चाताप की सुलगती अग्नि में अनायास ही झुलसने को मजबूर हो जाता है!
क्या थे क्या हो गये!
न जाने कितने सामने से ही आखरी सफर की राहों से गुजर गये!
इस जहां के दस्तूर में कुछ गुमनामी में चले गये!कुछ मशहूर हो गये!
समय के समन्दर में उठती लहरों के बीच हिचकोले खाती गमों के बोझ से बोझिल हयाती सफ़ीना साहिल तक पहुंचने के लिए निरन्तर संघर्षों की रस्सी पकड़े उम्र का आखरी लंगर डालने को आतुर होती है!
मगर साहब यह विरले को ही नसीब हो पाता!
दुर्भाग्य की उठती लहरों में किनारा पाने के पहले ही डूब जाने का अभी तक तमाम ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद है।
कदम कदम पर इस जहां के रस्मों रिवाज ने अपना साम्राज्य बना रखा है!
और उसी के शानिध्य में हर लम्हा गुजारना सभी के लिए जरूरी होता है।
इस मतलबी संसार में यह जानते हुए भी कोई अपना नहीं!
फिर भी उसके सुखी जीवन का सपना हर कोई देखता है!
भौतिक सुख की अनुभूति के लिए दिन रात कडी मेहनत करता है!
आदमी धन सम्पदा के मोह पास में इतना वध जाता है कि उसको विधाता के कायनाती वसूल का ख्याल ही भूल जाता है!
साथ ही ज़िन्दगी के मूल उद्देश्य से भटक जाता है!
उसको अपनी ग़लती का एहसास तब होता हैजब सारी इन्द्रियां शिथिल होकर बोझिल मन को ललकारने लगती है!
रे मूरख -तूने तो इस किराए की मकान को ही अपना समझ मालिक बनने का गुमान पाल लिया!,
जब की परम सत्ता का मूल मंत्र तुम्हें याद है कि यहां तेरा कोई नहीं!सब छोड़कर कर खाली हाथ ही जाना है!
फिर भी उस चंचला का दीवाना है जो कभी साथ नहीं जायेगी!
यह आनी जानी दुनियां दर्दों का मेला है!
केवल ख्वाबों का खेला है!
मतलब की बस्ती में लोगों को अपना बनाते बनाते ही असहाय लाचार होकर शून्य में विलीन हो जाते है।
जबज्ञकई कोई अपना नहीं होता है।
बांस के खटोले पर ही आखरी सफर का रास्ता दुसरो के कन्धे पर सवार होकर ही कटता है!
चाहे सियासत के शहंशाह हो!
धन दौलत का बादशाह हो!
या किसी का खैरख्वाह हो!सभी को उस मुकाम पर ही विश्राम मिलता है जहां घट घट व्यापी अविनासी श्मशान वासी महाकाल के पैर पखारती पतित पावनी कल कल करती इस धरती के पापियों को मुक्ति प्रदान करती है!
जब तक जीवन है कर्म ऐसा करो जमाना याद करें!
सदियां बीत गयी मगर आज भी राजा हरिश्चंद्र का ईमान लोगों को याद है!
राजा बली का दान याद है!
धर्मानुरागी श्री राम का संस्कार याद है!
,राणा का अभिमान याद है!
भगत सिंह का बलिदान याद है।
मान सिंह की गद्दारी याद है तो जफर शाह की वफादारी खुद्दारी याद है!—-?
सबका मालिक एक🕉️ साईं राम🌹🌹🙏🏾🙏🏾
सम्पादक
संतोष नयन – एन्टिकरप्शन नेशनल मीडिया