*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*सिमटते जा रहे हैं दिल और जज्बात के रिश्ते*!!
*सौदा करने में जो माहिर है बस वही कामयाब है*!!
इस बदलते परिवेश में जब सामाजिकता के धरातल पर एक ही सन्देश परिपूर्णता पा रहा है जिसमें सम्बन्धों के तराजू पर भी तिजारती अन्दाज में मोलभाव के साथ लोग ब्यवहार का निवेश कर रहे हैं फिर भी माया से ग्रसित हकीकत की हवा इस कदर चौतरफा हुंकार कर रही है की उसी के वातावरण में सब कुछ गुमनामी में चला जा रहा है।
अब तो परिवार शब्द की परिभाषा भी उस अभिलाषा पर विराम लगा दिया जिसमें संयुक्त परिवार का जिज्ञासा परवान चढ़ता था! हताश उदास मन से उस रहन सहन के बीच एकाकी जीवन के दहलीज पर ज़िन्दगी परवरिश पा रही है जिसमें भीड़ तो बहुत है लेकिन अपना कोई नहीं! सारे पैमाने बदल गये रिश्तो के मायने बदल गये!जरूरत भर साथ के बाद ट्रेन के मुसाफिर के तरह अपने गन्तव्य पर रवाना हो जाना परिवर्तन की पराकाष्ठा के तरफ ही इशारा है! अब गुजरे कल के साथ रहना किसको नहीं गवारा है! इस मृत्युलोक के शास्वत नियम में भले ही कोई परिवर्तन न हो लेकिन मानवीय संरचना के बहुआयामी उद्देश्यों में दूरगामी सोच का सम्वरण पाले स्वार्थ की बस्ती के वाशिंदों के दिल के जज्बात मरते जा रहे हैं! वे वहीं करते जा रहे हैं जो कभी इस समाज में घृणित माना गया था।बेशर्मी की उफनती गर्मी से नहाये कपूतों की शोहरत आजकल परवान चढ़ रही हैं।घर परिवार को दरकिनार कर आयातित रिश्तों की बुनियाद पर अधिकार के आरज़ू में उस तराजू पर अपनी औकात तौल रहे हैं जिसपर दुर्भाग्य पहले से ही अधिकार जमा रखा है! जिस तरह से हालात करवट ले रहा हैं उससे तो अब हर कोई सशंकित है! मगर सामाजिकता के धरातल पर फन फैलाए जहरीला नाग की तरह झूठा अहंकार उस सद विचार पर भारी पड़ रहा है जहां सम्बन्ध अनुबन्ध पर नहीं बल्कि दिल के लगाव से सम्भाव की नित नई इबारत तहरीर किया करता था। अब तो वक्त की बेरूखी के चलते ख्वाहिशें खामोशी अख्तियार कर ली है! मायूसी की अहमियत बढ़ गयी है! तिरस्कार को तवज्जह देने वाले उन रहबरों के रहबरी को भूल गये जिनके दर्द से कराहती जिन्दगी के बीच परवरिश पाकर आज इठलाकर चल रहे हैं।विडम्बना देखिए जिनके लिए जीवन संघर्षों में मौन कर दिया वहीं आज सवाल पूछते हैं।आज तक हमारे लिए आपने किया ही क्या है!सवाल ज्यों ही उठा!
अश्कों की वर्षांत में बाप का चेहरा भीगने लगा!साहब यह जुमला अब आम बात हो गया है!मतलब परस्ती की बस्ती में अपनी हस्ती को गंवाकर जिन्दगी की जंग लड़कर चाहत के धरातल पर तबाही के तुफानों के बीच कुशलता के परचम को बुलन्दी पर पहुंचाने वाला ही आज नकारा है क्यों की वह गैर से नहीं अपनों से हारा है!जिसके शानिध्य में पलबढकर उम्र आरज़ू लिए उमंगों की आसमानी उड़ान पर मुस्कराई वहीं सफर के आखरी पहर में डबडबाई आंखों से गिरते आंसुओं के सैलाब में टूटते ख्वाब को देखना मजबूरी बन गया!,जिनको गोद में लिए भविष्य के ताने बाने बुनता रहा उनके जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही तीखे सवालों ने भीष्म के बाण शैया पर लेटने जैसा आघात पैदा कर दिया! वक्त का खेला है साहब आज मेला है कल हर कोई अकेला है। मगर मगरूरीयत के जज्बे में भविष्य की पटकथा नजर नहीं आ रही है।जिधर देखिए, जिससे मिलिए एक ही कहानी है! बदलाव की बहती प्रदूषित हवा तूफानी है। चाहकर भी आह भर कर भी बचना मुश्किल है।समय रहते जो नहीं सम्हाल गया वक्त उसके हाथ से फिसल गया! पश्चाताप संताप के साथ ही इस जीवन के लिए अभिशाप बन गया !इसकी हकीकत जानने के लिए एक बार बृद्धा आश्रम जरूर जाएं।शायद मोह माया की परिधि से बाहर निकल पाए।सबका मालिक एक 🕉️ साई राम
जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत 7860503468