
जीवन में जितनी जरूरत बुद्धि की है, उससे भी ज्यादा जरूरत शुद्धि की हैं।
बुद्धि से सही गलत की पहचान होती है और शुद्धि से हमारे शरीर और मन में आ बैठी गंदगी दूर होती है। लेकिन यहां प्रश्न यह है कि बुद्धि कैसे आए और शुद्धि कैसे हो। ये दोनों लक्ष्य हम संतों के सत्संग और अच्छे शास्त्रों के पठन पाठन से हासिल कर सकते हैं। असल में व्यक्ति अपने आसपास जो देखता और सुनता है, उससे उसकी भावना व क्रिया प्रभावित होती है।
कोई व्यक्ति जब साधुओं की संगति करता है तो वह अपनी भूलकर औरों की भाषा पब्लिक को छोड़ कर परमार्थ यानी दूसरों के हित की चिंता करने के लिए प्रेरित होता है। जब वह परमार्थ के बारे में सोचता है तो उसका ध्यान दूसरों की सेवा में लगता है। ऐसा होने पर खुद व्यक्ति का ही भला नहीं होता, बल्कि इससे पूरे समाज का कल्याण होता है। परंतु मन सत्संग के लिए कैसे राजी हो?
वह तो बड़ा चंचल है। समस्या मन का चंचल होना नहीं है। मन चंचल न होता तो बेंगलोर में बैठा व्यक्ति मन से मुंबई नहीं पहुंच पाता। यह तो एक सुविधा है। लेकिन मन की चंचलता तब समस्या बन जाती है, जब हम मन को किसी एक विषय में केंद्रित करना चाहते हैं और वह वहां स्थिर नहीं रहता। जिस प्रकार हवा को कैद कर पाना कठिन है, उसी प्रकार मन को वश में करना भी बहुत कठिन है। उस पर जितना काबू पाने की कोशिश करेंगे, वह उतना ही भागेगा अनुभव कहता है कि मन वहीं लगता है, जहां उसे रस मिलता है। जहां उसे तृप्ति का अनुभव होता है। यदि मन ही मन हम भगवान को प्रेम करेंगे, तब मन भगवान में ही लगा रहेगा।
ध्यान रखना कि जब तक मन सांसारिक वस्तुओं में फंसा रहेगा, तब तक मन से मल मिटेगा नहीं। और जब तक मन का मल नहीं मिटेगा, तब तक मन की चंचलता नहीं खत्म होगी। पर जब मन से रज और तम के लक्षण मिट जाते हैं, तो वह स्वाभाविक रूप से स्थिर हो जाता है।
मन को स्थिर करने के प्रयास कब और कैसे किए जाएं, इसका भी विशेष ध्यान रखना पड़ता है। ब्रह्म मुहूर्त में मन पर सत्वगुण का प्रभाव विशेष रहता है। इसलिए उस समय को संतों ने भजन के लिए श्रेष्ठ माना है। तब मन सरलता से जप, ध्यान आदि में लग जाता है। सत्संग, कथा श्रवण आदि से राग यानी जिसमें मन रमता है, उस राग की दिशा बदल जाती है। जो राग संसार में है, वह राग भगवान में हो जाता है और प्रभु में हुआ राग, अनुराग बन जाता है। संसार और सांसारिक भोग्य पदार्थों से विराग सहज ही हो जाता है।
पूजा, नाम स्मरण और ध्यान आदि सभी प्रेम की परछाई हैं, ऐसा मैं मानता हूं। जिसमें प्रेम होता है, हम उसकी पूजा और सेवा के लिए सदा लालायित रहते हैं। उसका स्मरण व ध्यान होता रहता है। सही बात तो यह है कि पाप हमारा प्रेम प्रभु में नहीं होने देते। अत: उन पापों से मुक्ति आवश्यक है। इसलिए त्याग, तप, दान और दया क्षमा करते रहो इससे पापों का नाश होगा और धीरे धीरे प्रभु में प्रेम बढ़ता जाएगा फिर मन सहज रूप से प्रभु में स्थिर हो जाएगा।