उदार दाता
एक बार श्री परमहंस दयाल जी स्नान कर रहे थे।
भक्त अमीरचंद जी सेवा में थे।
उन्होंने देखा कि महाराज के स्नान की चौकी का एक पावा टूटने ही वाला था
महाराज नहाते-नहाते कहीं गिर न जाये,
ऐसा सोचकर भक्त जी ने उसे पावे को तोड़ कर हटा दिया और धीरे से उसके बदले अपनी जाँघ चैकी के नीचे लगाकर स्थिर बैठे रहे।
महाराज का शरीर चूँकि वजनी था,
अतः चौकी की नुकीली कील उनकी जाँघ में गहरी धसँ गई।
फलस्वरूप् भक्त अमीरचन्द जी बुरी तरह घायल हो गए।
पानी के साथ मिलकर खून आगे को बह चला।
महाराज श्री देखते ही चैंकी से उठकर खड़े हो गए।
भक्त जी की जाँघ को जख्मी देख वे द्रवित हो गए।
उनके होंठ फड़कने लगे।
सरकार मौज में आकर बोले-
‘तुम्हारे सेवा-भाव से मैं खुश हू।
माँगो क्या माँगते हो ?’’
भक्त जी ने कहा-
महाराज ऐसा आर्शीवाद दे कि आपकी समाधि मेरे घर में बने।
वैसा ही हुआ।
बाद में देश विभाजन के पश्चात् समाधि टेरी में ही रह गई।
जिसे लम्बे समय तक हिन्दू-मुसलमान पूजते रहें।
भजन
साधौ टेक हमारी ऐसी।
कोटि जतन करि छूटै नाहीं करी अब कैसी॥
यह पग धरो सँभाल अचल होइ बोल चुके सोइ बोलै।
गुरु मारग में लेन न देनो अब इत उत नहिं डोलै॥
जैसे सूर सती अरु दाता पकरी टेक न टारैं।
तन करि धन करि मुख नहिं मोड़ैं धर्म न अपनो हारैं॥
पावक जारों जल में बोरो टूक-टूक करि डारो।
साध सँगति हरि भक्ति न छोडूँ जीवन प्रान हमारो॥
पैज न हारूँ दाग न लागे नेक न उतरे लाजा।
चरनदास सुकदेव दया से सब विधि सुधरैं काजा॥