
दो मित्र गुरूजी से शिक्षा प्राप्त कर, राजा के दरबार में पहुँचे। राजा ने उन्हें कुछ ज्ञान की बात सुनाने के लिए कहा। उनमें से एक ने कहा-
“देत भुवालम्, फरत लिलारम्। न विद्या, न च पौरूषम्॥”
माने राजा देता है, तो भाग्य फलीभूत होता है, विद्या या पुरूषार्थ से जगत के सुख साधन नहीं प्राप्त हुआ करते।
दूसरे ने कहा- “फरत लिलारम्, देत भुवालम्। न विद्या, न च पौरूषम्॥”
माने भाग्य फलीभूत होता है, तो राजा देता है, विद्या या पुरूषार्थ से जगत के सुख साधन नहीं प्राप्त हुआ करते।
राजा को पहले वाले की बात बहुत अच्छी लगी। अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती? तो उपहार के रूप में उसे हीरों से भरा एक कद्दू दे दिया।
दूसरे ने तो राजा की प्रशंसा की नहीं थी जो उसे हीरे मिलते। उसे सत्तू दे कर विदा किया।
अब देखें, हुआ यह कि पहले वाले को कद्दू खाना बिल्कुल पसंद नहीं था, और सत्तू बहुत पसंद था।
रास्ते में उसने अपने उस मित्र से कहा- भाई! मुझे सत्तू बहुत अच्छा लगता है, तूं मेरा कद्दू ले ले, और मुझे अपना सत्तू दे दे।
आप समझ ही गए होंगे कि किसे क्या प्राप्त हुआ?
लोकेशानन्द कहता है कि भगवान और भगवत्स्वरूप संतों की सेवा से जो सत्कर्म एकत्र होता है, उसी से कालांतर में भाग्य का निर्माण होता है और सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
भाग्य में होता है तो मिलता है, नहीं होता तो नहीं ही मिलता। विद्या और पुरूषार्थ तो बहाना मात्र है।
आप इसी एक विचार को लेकर, सदा उसी में विभोर रहो। सोते जागते सब समय, आपकी बुद्धि इसी एक विचार से परिपूर्ण रहे।
व्यवहार तो निभता रहे, पर दूसरे सारे आश्रय छूट जाएँ। यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
साधारण मानव करोड़ों जन्मों के व्यवहार से जिन सब अवस्थाओं से मुक्त होता है,
सावधान साधक एक ही जन्म में उन सभी अवस्थाओं को भोग लेता है। वह दूसरी चिन्ता ही नहीं लेता, दूसरी बात के लिए निभिषमात्र भी समय नहीं देता।
तब मुक्ति में देरी नहीं होती।