
#सत्यविचार
ये जो तस्वीर है वो दो #भाइयों_के_बीच_बंटवारे के बाद की बनी हुई तस्वीर है।
बाप-दादा के घर की देहली को जिस तरह बांटा गया है वह हर गांव-घर की असलियत को भी दर्शाता है।
दरअसल हम गांव के लोग जितने खुशहाल दिखते हैं उतने हैं नहीं।
जमीनों के केस, पानी के केस, खेत-मेढ के केस, रास्ते के केस, मुआवजे के केस, व्याह शादी के झगढे, दीवार के केस,आपसी मनमुटाव, चुनावी रंजिशों ने समाज को खोखला कर दिया है।
अब गांव वो नहीं रहे कि बस में गांव की लडकी को देखते ही सीट खाली कर देते थे बच्चे।
दो चार थप्पड गलती पर किसी बुजुर्ग या ताऊ ने टेक दिए तो इश्यू नहीं बनता था तब।
अब हम पूरी तरह बंटे हुए लोग हैं।
गांव में अब एक दूसरे के उपलब्धियों का सम्मान करने वाले, प्यार से सिर पर हाथ रखने वाले लोग संभवत अब मिलने मुश्किल हैं।
हालात इस कदर खराब है कि अगर पडोसी फलां व्यक्ति को वोट देगा तो हम नहीं देंगे। इतनी नफरत कहां से आई है लोगों में ये सोचने और चिंतन का विषय है।
गांवों में कितने झगडे होते हैं और कितने केस अदालतों व संवैधानिक संस्थाओं में लंबित है इसकी कल्पना भी भयावह है।
संयुक्त परिवार अब गांवों में एक आध ही हैं, लस्सी-दूध जगह वहां भी डयू कोका पिलाई जाने लगी है।
बंटवारा केवल भारत का नहीं हुआ था, आजादी के बाद हमारा समाज भी बंटा है और शायद अब हम भरपाई की सीमाओं से भी अब दूर आ गए हैं। अब तो वक्त ही तय करेगा कि हम और कितना बंटेंगे।
पहले लोग एक जगह बैठ कर बड़ी बड़ी समस्याओ को सुलझा लेते थे , आज छोटी छोटी बातों को बडी बडी कर देते है !
भेड़चाल शुरू हो गई , शहरों की कॉपी करने के चक्कर मे गाँवो की संस्कृति धीरे धीरे पीछे छूटती जा रही है ,
जहां पहले एक दूसरे के मान सम्मान के लिए लोग अपने जान की बाजी लगा देते थे , आज लोग दूसरे को पीछे करने के लिए कुछ भी करने को तैयार है..!
आखिर कहाँ जा रहे है , किस दिशा में जा रहे है…सब कुछ तेजी से बदल रहा है..!
एक दिन यूं ही बातचीत में एक मित्र ने कहा कि जितना हम पढे हैं दरअसल हम उतने ही बेईमान बने हैं।
गहराई से सोचें तो ये बात सही लगती है कि पढे लिखे लोग हर चीज को मुनाफे से तोलते हैं और ये बात समाज को तोड रही है।
शिक्षा मतलब ये नही है कि संस्कृति , आपसी- प्रेम , इंसानियत को ही भूल जाये…।।