
“लाठी”
गर्मियों की छुट्टियों में 15 दिन के लिए मायके जाने के लिए पत्नी नेहा और दोनों बच्चों को रेलवे स्टेशन छोड़ने मोहन गया तो मैडमजी ने सख्त हिदायत दी।
माँजी-बाबूजी का ठीक से ध्यान रखना और समय-समय पर उन्हें दवाई और खाना खाने को कहियेगा।
मोहन- हाँ.. हाँ..ठीक है..जाओ तुम आराम से, 15 दिन क्या एक महीने बाद आना, माँ-बाबूजी और मैं मज़े से रहेंगे……………………..
और रही उनके ख्याल की बात तो…………………..
मैं भी आखिर बेटा हूँ उनका,मोहन ने भी बड़ी अकड़ में कहा…………………….
नेहा मुस्कुराते हुए ट्रैन में बैठ गई…कुछ देर में ही ट्रेन चल दी….उन्हें छोड़कर घर लौटते वक्त सुबह के 08.10 ही हुए थे तो मोहन ने सोचा बाहर से ही कचोरी-समोसा ले चलूं ताकि माँ को नाश्ता ना बनाना पडे।
घर पहुंचा तो माँ ने कहा…तुझे नहीं पता क्या.. हमने तला-गला खाना पिछले आठ महीनों से बंद कर दिया है……………………………..
वैसे तुझे पता भी कैसे होगा, तू कौन सा घर में रहता है।
आखिरकार दोनों ने फिर दूध ब्रेड का ही नाश्ता कर लिया..!!
नाश्ते के बाद मोहन ने दवाई का डिब्बा उनके सामने रख दिया और दवा लेने को कहा तो माँ बोली -हमें क्या पता कौन सी दवा लेनी है …………………………
रोज तो नेहा बहू निकालकर ही देती है आखिर मोहन ने नेहा को फोन लगाकर दवाई पूछी और उन्हें निकालकर खिलाई।
इसी तरह नेहा के जाने के बाद मोहन ने उसे अनगिनत बार फोन लगाया ताकि पता कर सके कौन सी चीज कहाँ रखी है…………………..
माँ-बाबूजी को क्या पसन्द है क्या नहीं………………..
कब कौन सी दवाई देनी है………………………
रोज माँ-बाबूजी को बहू-बच्चों से दिन में 2 या 3 बार बात करवाना,
गिन-गिन कर दिन काट रहे थे दोनों…………………..
सचमुच मे माँ-बाबूजी के चेहरे मुरझा गए थे, जैसे उनके बुढ़ापे की लाठी किसी ने छीन ली हो।
बात-बात पर झुंझलाना और चिढ़-चिढ़ापन बढ़ गया था उनका,
मोहन खुद अपने आप को बेबस महसूस करने लगा,
उससे मां बाबूजी या यूं कहे अपना भी अकेलापन देखा नहीं जा रहा था।
आखिरकार अपनी सारी अकड़ और एक बेटा होने के अहम को ताक पर रखकर एक सप्ताह बाद ही नेहा को फोन करके वापस आने को कहने लगा…………
और जब नेहा और बच्चे वापस घर आये तो दोनों के चेहरे की मुस्कुराहट और खुशी देखने लायक थी, जैसे पतझड़ के बाद किसी सूख चुके वृक्ष की शाख पर हरी पत्तियां खिल चुकी हो।
और ऐसा हो भी क्यों नही…………………………
आखिर उनके परिवार को अपने कर्मों से रोशन करने वाली उनकी बहु उनकी बेटी जो आ गई थी।
मोहन को भी इन दिनों में एक बात बखूबी समझ आ गई थी और वो यह कि…!!
वृद्ध अवस्था मे माता-पिता के बुढ़ापे में असली सहारा उनके बुढापे की लाठी उनकी बहु होती है ना की बेटा..