
रामायण-रहस्य-99
कैकेयी की बात सुनकर भरत को आग लग गई, पिता की मृत्यु का शोक भी ।
वह जाने-अनजाने भूल गया और इन सब दुर्भाग्यों का कारण जानकर वह अपने दुःख को दूर नहीं कर सका। मन में क्रोध भरकर उन्होंने कहा, “ओह, तुम कुल कि नाशक हो।”
नष्ट कर दिया, अगर इतनी बुरी इच्छा थी तो मेरा जन्म क्यों हुआ?
मुझे भी मार दो तुमने पेड़ को काटा और पत्तों को सींचा, राम-लक्ष्मण जैसे भाई मिले, लेकिन दुर्भाग्य कि मैंने तुम्हें एक माँ के रूप में पाया।
मेरे कहने पर भी मेरी जुबान हिचकिचाती है, अरे ये मांगते वक्त तुम्हारी जुबान क्यों नहीं कटी?
तुम्हारे मुँह में कीड़े क्यों नहीं पड़े ? तुम्हारा दिल क्यों नहीं फटा ?
तुम मेरी माँ हो, और राम भी तुम्हें माँ कहते हैं,
इसलिए मैं राम की माँ का हत्यारा नहीं बनना चाहता, नहीं तो मैं तुम्हें अभी मार दूं ।
पिताजी इतने भोले थे कि उनको भी आपने धोखा दिया ।
वे गए, लेकिन रामजी के पीछे प्राण देकर, वे धन्य हो गए।पत्नी बनने के बाद भी, आपने पति का हित नहीं देखा,
तू ने राम को वन में भेजा, मेरे पिता को मार डाला, और लोगों के बीच मेरी निन्दा की। अब लोग भी
वही कहेंगे कि भरत भी अपनी मां की तरह है बोलते-बोलते भरत बेहोश हो गए।
वहां हरखती हरखती मंथरा आई। शत्रुघ्न का क्रोध फूटा उसने जोर से लात मारी, केश को पकड़कर घसीटने लगा , इस हंगामे में भरत को थोड़ा होश आया, भरत कौशल्याजी से मिलने गए, और जाने के साथ
उसके पैरों में ढेर हो गए और कहा – अरे मां रामजी वन में हैं और पिता स्वर्ग में,
इस दुर्भाग्य का कारण मैं हूँ, बाँस के जंगल में आग लगाने वाला मैं हूँ, मुझे इससे नफरत है।
कौशल्या मा ने उठकर भरत को सीने से लगा लिया, उनकी आंखों से आंसू भी छलक पड़े।
फिर उसने एक हाथ से भरत और दूसरे हाथ से शत्रुघ्न को लिया, जैसे राम-लक्ष्मण गए ही नहीं! भरत को गोद में रखकर उन्होंने भरत के आंसू पोछे और कहा, तुम्हरा कोई दोष नहीं है,
यह सच है कि विधाता का यही विधान था
राजा को जीना आता था और मरना भी जानते थे। मैं माँ नहीं हूँ लेकिन मैं एक पत्थर हूँ।
अरे, रे, जब मेरे राम ने अपने कपड़े उतारे और वल्कन पहना तो मैंने क्यों नहीं फाड़ा ? कौशल्या फूट-फूट कर रोई, भरत के साथ-साथ शत्रुघ्न भी रोए।
आवेग थोड़ा शांत हुआ तो कौशल्या ने कहा- अरे बेटा, मेरे लिए तुम राम के समान हो, मेरा मन भी वैसा ही है।
मुझे परवाह नहीं है कि उसे गद्दी मिले या तुम्हे गद्दी मिले, जब मेरे राम वन में गए तो उनका मन प्रसन्न था, भरत को लगा कि वह कौशल्या मा ने बान् मारा है, उसका दर्द खत्म नहीं हुआ है।
उसने हाथ उठाकर कहा – अरे, माँ, सुन, मैं सत्य की कसम खाता हूँ, मैं कसम खाता हूँ, कि – यदि मेरा हाथ इस सब में है, तो शास्त्रों में जितने पाप हैं, उतने पाप मेरे में हैं, तब कौशल्या ने फिर भरत को अपनी गोद में खींच लिया और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
बेटा, मैं जानती हूं कि राम की तुम्हारी आत्मा एक हैं, तुम राम को प्रिय हो। चाँद से कभी जहर नहीं आएगा, बर्फ से आग कभी नहीं आएगी, लेकिन तुम राम के खिलाफ कभी नहीं हो।
जो कोई कहता है कि तुम इस काम से सहमत हैं वह कभी सपने में भी खुश नहीं होगा। राजा दशरथ ने कहा था राम को वन भेजने में भारत का कोई हाथ नहीं।
तो अगले ही दिन राजा का भरत के हाथो अंतिम संस्कार करा दिया गया।