
मंदिर जाना क्यों जरूरी?
*******************
मंदिर’ का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। जहां मन का ऊहा पोह, बेचैनी और अशांति न हो।
‘मंदिर’ का अर्थ ‘घर’ भी होता है, जैसे देवघर।
मंदिर को द्वार भी कहते हैं, जैसे गुरुद्वारा।
मंदिर को आलय भी कहते है,जैसे कि शिवालय, जिनालय आदि।
वास्तव में जिस स्थान पर जाने से मन का अभाव हो जाय वह मंदिर है।
हमारे देश में मंदिर जाने की परंपरा शुरू से रही है। मंदिर जाने के एक नही अनेक कारण है।
मंदिर जाना इसलिए जरूरी है कि वहां जाकर आप यह सिद्ध करते हैं कि आप देव शक्तियों में विश्वास रखते हैं, और आप देव शक्तियों के साथ है, तब देव शक्तियां भी आपके साथ होती है और आप की मदद करती है।
अच्छे मनोभाव से नियमित मंदिर जाने वाले की सभी तरह की समस्याएं समाप्त हो जाती है।
मंदिर जाते रहने से मन में दृढ़ विश्वास और आशा का संचार होता है।
विश्वास की शक्ति से ही धन, जन और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।
यदि आपने कोई ऐसा अपराध किया है कि जिसे आप ही जानते हैं तो आपके लिए प्रायश्चित का समय है।
आप मंदिर जाकर भगवान से क्षमा मांग कर अपने मन को हल्का कर सकते हैं।
इससे आपकी मन की बैचेनी समाप्त हो जाएगी और आप का जीवन फिर से पटरी पर आ जाएगा।
* मंदिर में शंख और घंटियों की आवाजें वातावरण को शुद्ध कर हमारे मन और मस्तिष्क को शांत करती हैं।
धूप और दीप से मन और मस्तिष्क के सभी तरह के नकारात्मक भाव हट जाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
मंदिर के वास्तु और वातावरण के कारण वहां सकारात्मक उर्जा ज्यादा होती है।
प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के महत्वपूर्ण केंद्र बिंदु थे।
धरती के दो छोर हैं- एक उत्तरी ध्रुव और दूसरा दक्षिणी ध्रुव। उत्तर में मुख करके पूजा या प्रार्थना की जाती है इसलिए प्राचीन काल के सभी मंदिरों के द्वार उत्तर में होते थे।
हमारे प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां मंदिर बनाए। मंदिर में शिखर होते हैं।
शिखर की भीतरी सतह से टकराकर प्रकाश तरंगें व ध्वनि तरंगें के रूप में ऊर्जा व्यक्ति के शरीर के ऊपर पड़ती हैं।
ये परावर्तित ऊर्जा तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं।
व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे-धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है।
इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है। मंदिर का भव्य होना जरूरी है।
भव्यता से ही दिव्यता का अवतरण होता है। मंदिर वास्तु का ध्यान रखना जरूरी है।
यदि आप मंदिर में हैं तो इन बातों का विशेष ध्यान रखें अन्यथा आपकी पूजा, प्रार्थना आदि करने का कोई महत्व नहीं रहेगा।
उल्टे इसके कुछ दुष्परिणाम भी हो सकते है। कुछ प्रमुख आचरण जिन्हें मंदिर में नहीं करना चाहिए_
1.भगवान के मंदिर में चप्पल या जुत्ता पहनकर चले जाना।
2.भगवान के सामने जाकर प्रणाम न करना,
3.गंदा या अपवित्र अवस्था में भगवान की पूजा करना
5.एक हाथ से प्रणाम करना,
6.भगवान के सामने ही एक स्थान पर खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना,
7.भगवान के आगे पांव फैलाना,
8.मंदिर में पलंग पर बैठना या पलंग लगाना या कुर्सी पर बैठना
9.मंदिर में सोना,
10. मंदिर में बैठकर गपसप करना,
11.मंदिर में रोना या जोर जोर से हंसना,
12. मंदिर में चिल्लाना, फोन पर बात करना, झगड़ना, झूठ बोलना, गाली बकना,
13.खाना या नशा करना,
14.किसी को दंड देना,
15.कंबल ओढ़कर बैठना,
16.गैस छोड़ना
17.अपने बल के घंमड में दूसरे को हीन समझना, गरीब और असहाय की मदद का दिखावा करना
18, दूसरे की निंदा या स्तुति करना,
19.स्त्रियों के प्रति कठोर बात कहना,
20.भगवत-सम्बन्धी उत्सवों का सेवन न करना।
21.शक्ति रहते हुए गौण उपचारों से पूजा करना,
22.मुख्य उपचारों का प्रबन्ध न करना,
23.भगवान को भोग लगाए बिना ही भोजन करना,
24.सामयिक फल आदि को भगवान की सेवा में अर्पण न करना,
25. उपयोग में लाने से बचे हुए भोजन को भगवान पर चढ़ाना।
26.आत्म-प्रशंसा करना,
27. देवताओं को कोसना,
28.आरती के समय उठकर चले जाना,
29.मंदिर के सामने से निकलते हुए प्रणाम न करना,
मंदिर में प्रवेश से पूर्व…
आचमन विधान : मंदिर में प्रवेश से पूर्व शरीर और इंद्रियों (आंख,नाक,कान,मुंह आदि) को जल से शुद्ध करने के बाद आचमन करना जरूरी है। इस शुद्ध करने की प्रक्रिया को ही आचमन कहते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।
मंदिर में जाने का सर्वश्रेष्ठ वार, जानिए कौन-सा….
शिव जी के मंदिर में सोमवार, विष्णु जी के मंदिर में रविवार, हनुमान जी के मंदिर में मंगलवार, शनि देव के मंदिर में शनिवार और दुर्गा जी के मंदिर में बुधवार और काली व लक्ष्मी जी के मंदिर में शुक्रवार को जाने का उल्लेख मिलता है। गुरुवार को गुरुओं का वार माना गया है।
रविवार और गुरुवार धर्म का दिन : विष्णु जी को देवताओं में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त है और वेद अनुसार सूर्य इस जगत की आत्मा है। शास्त्रों के अनुसार रविवार को सर्वश्रेष्ठ दिन माना जाता है। रविवार (विष्णु) के बाद देवताओं की ओर से होने के कारण बृहस्पतिवार (देव गुरु बृहस्पति) को प्रार्थना के लिए सबसे अच्छा दिन माना गया है।
गुरुवार क्यों सर्वश्रेष्ठ?
रविवार की दिशा पूर्व है किंतु गुरुवार की दिशा ईशान है। ईशान में ही देवताओं का स्थान माना गया है। यात्रा में इस वार की दिशा पश्चिम, उत्तर और ईशान ही मानी गई है। इस दिन पूर्व, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में यात्रा त्याज्य है।
गुरुवार की प्रकृति क्षिप्र है। इस दिन सभी तरह के धार्मिक और मंगल कार्य से लाभ मिलता है। अत: हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यह दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है अत: सभी को प्रत्येक गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए और पूजा, प्रार्थना या ध्यान करना चाहिए।
मंदिर में पूजा या प्रार्थना क्यों… पूजा : पूजा एक रासायनिक क्रिया है। इससे मंदिर के भीतर वातावरण की पीएच वैल्यू (तरल पदार्थ नापने की इकाई) कम हो जाती है जिससे व्यक्ति की पीएच वैल्यू पर असर पड़ता है। यह आयनिक क्रिया है, जो शारीरिक रसायन को बदल देती है। यह क्रिया बीमारियों को ठीक करने में सहायक होती है। दवाइयों से भी यही क्रिया कराई जाती है, जो मंदिर जाने से होती है।
पूजा- आरती का वैज्ञानिक महत्व, जानिए।
प्रार्थना : प्रार्थना में शक्ति होती है। प्रार्थना करने वाला व्यक्ति मंदिर के ईथर माध्यम से जुड़कर अपनी बात ईश्वर या देव शक्ति तक पहुंचा सकता है। मानसिक या वाचिक प्रार्थना की ध्वनि आकाश में चली जाती है। प्रार्थना के साथ यदि आपका मन सच्चा और निर्दोष है तो जल्द ही सुनवाई होगी और यदि आप धर्म के मार्ग पर नहीं हैं तो प्रकृति ही आपकी प्रार्थना सुनेगी देवता नहीं।
प्रार्थना का दूसरा पहलू यह कि प्रार्थना करने से मन में विश्वास और सकारात्मक भाव जाग्रत होते हैं, जो जीवन के विकास और सफलता के अत्यंत जरूरी हैं। खुद के जीवन के बारे में निरंतर सकारात्मक सोचते रहने से अच्छे भविष्य का निर्माण होता है। मंदिर का वातावरण आपके दिमाग को सकारात्मक दिशा में गति देने लगता है। परमेश्वर की प्रार्थना के लिए वेदों में कुछ ऋचाएं दी गई है, प्रार्थना के लिए उन्हें याद किया जाना चाहिए।
मंदिर समय : हिन्दू मंदिर में जाने का समय होता है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधिकाल में ही संध्या वंदना की जाती है।
वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्याकाल- उक्त 2 समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।