यूनान में एक संत हुए हैं डायोजनीज। एक कुत्ते को सागर से निकल कर, रेत में लोटते देखकर, डायोजनीज ने अपना लंगोट और कटोरा गिरा दिया था,कि कुत्ता इनके बिना मस्त रह सकता है तो मैं क्यों नहीं? तब से वह सागर किनारे ही रहने लगे।
उधर सिकंदर ने विश्व विजय के लिए निकलने से पहले, उसके दर्शन करने का विचार किया।
डायोजनीज रेत में लेटा था। सिकंदर आया और बोला- मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ।
डायोजनीज ने कहा- दर्शन हो गए हों, तो सामने से हट जाओ। तुम मेरी धूप में बाधा बन रहे हो।
सिकंदर- तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं सिकंदर हूँ।
डायोजनीज- ओह! तो तुम हो सिकंदर? यहाँ से रोज जो लाव लश्कर निकलते हैं, वे तुम्हारे हैं?
“हाँ!” सिकंदर मुस्कुराया।
डायोजनीज- इतनी तैयारी किसलिए चल रही है?
सिकंदर- मैं विश्व विजय के लिए जा रहा हूँ।
डायोजनीज- अच्छा? पर किसलिए?
सिकंदर- यह मेरी इच्छा है। जब तक मैं पूरा विश्व न जीत लूं मेरे मन को चैन नहीं पड़ता।
डायोजनीज- लेकिन तुम विश्व को जीत कर करोगे क्या?
सिकंदर- तब करने को कुछ बचेगा ही कहाँ? तब तो मैं आराम करूंगा।
डायोजनीज- जो करना हो करो।
मेरा कोई आग्रह नहीं है, पर अगर तुम आखिर आराम ही करना चाहते हो, तो उसके लिए पूरी दुनिया का चक्कर लगाने की क्या जरूरत है? देखते हो? कितना सुंदर मौसम है?
कितनी प्यारी धूप है? कितनी नर्म रेत है? कितनी मस्त हवा चल रही है?
छुट्टी कर सब की, तूं भी सबसे छूट जा। ये ताज गिरा दे, कपड़े उतार, और यहीं लेट जा।
यहाँ बहुत आराम है। आराम ही आराम है।
पर सिकंदर को आराम कहाँ? और आप जानते ही होंगे, वह कभी यूनान न लौट सका, कभी आराम न कर सका। वह रास्ते में ही मर गया।
लोकेशानन्द कहता है कि सिकंदर तो सिकंदर की कहानी नहीं जानता था। पर अब आप तो जानते हैं? ‘आप’ कब आराम करेंगे?