तुम्हारे मन में अगर किसी को भी दुख देने का जरा सा भी भाव है!
तो तुम अपने लिए बीज बो रहे हो। क्योंकि तुम्हारे मन में जो दुख देने का बीज है, वह तुम्हारे ही मन की भूमि में गिरेगा, किसी दूसरे के मन की भूमि में नहीं गिर सकता। बीज तो तुम्हारे भीतर है, वृक्ष भी तुम्हारे भीतर ही होगा, फल भी तुम्हीं भोगोगे।
अगर बहुत गौर से देखा जाए, तो जब तुम दूसरे को दुख देना चाहते हो, तब तुमने अपने को दुख देना शुरू कर ही दिया। तुम दुखी होने शुरू हो ही गए। तुम क्रोधित हो, किसी पर क्रोध करके उसे नष्ट करना चाहते हो; उसे तुम करोगे या नहीं, यह दूसरी बात है, लेकिन तुमने अपने को नष्ट करना शुरू करे दिया।
बुद्ध कहते थे, क्रोध से बड़ी कोई मूढ़ता नहीं है। दूसरे के कसूर के लिए तुम अपने को दंड देते हो। एक आदमी ने तुम्हें गाली दी, कसूर उसका होगा, अब क्रोधित तुम हो रहे हों, दंड तुम अपने को दे रहे हो, कसूर उसका था! इससे ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है? उसने गाली दी, उसकी समस्या है; तुम क्यों बीच में आते हो? तुम गाली मत लो, लेने पर निर्भर है। लेना आवश्यक नहीं है। आप मुझे गाली दे सकते हैं, लेकिन लेने पर थोड़े ही मजबूर कर सकते हो, देना आपके बस में है, लेना मेरे बस में है। उस मालकियत को मुझसे कोई कभी नहीं छीन सकता। मैं कह सकता हूँ, कि नहीं लेता, फिर तुम क्या करोगे? तुम्हारी गाली तुम्हीं पर लौट जाएगी। तुमने गाली देने के लिए जो तैयारी में दुख भोगा, वह भोगा, अब गाली लौटेगी तब तुम जो दुख भोगोगे, वह भोगोगे।
जब हम किसी चीज को अपने मन के भीतर ले लेते हैं, तभी वह सक्रिय हो जाती है। और दूसरे से लेने की कोई जरूरत नहीं है; तुम अपने भीतर ही इतने दुख के बीज पैदा करते रहते हो, अकारण !!