
*🙌 प्यारे की बात🙇*
*एक गोपी ब्याह कर बरसाने आयी। अपने घर-परिवार के संस्कार और परंपरा बताते हुए उसकी सास यह कहना न भूली कि वह अकेली कहीं न जाये, क्योंकि यहाँ नन्दगाँव के नन्दजी का बेटा घूमता रहता है और छोटी सी उम्र में ही उसे “जादूगरी” का ऐसा ज्ञान है कि जो उसे देख ले, सुध-बुध खो बैठे। सो तू विशेष सावधानी रखना। गोपी बोली- “मैया ! मैं उसे पहिचानूंगी कैसे”? सास ने कहा- नन्दनन्दन के नील वर्ण के मस्तक पर विविध रंगों के रत्नों की आभा युक्त स्वर्ण मुकुट के मध्य में मयूर पंख लहराता रहता है, घुंघराली अलकावलियाँ हैं, कानों में कुण्डल हैं, रक्त-चंदन का तिलक और मुख पर चंदन का ही श्रृंगार उसकी मैया करती है। नन्दनन्दन के शरीर का रंग इन्द्र नीलमणि, मेघ, नीलकमल एवं दिव्य प्रेमामृत का सारयुक्त प्रतीत होता है। अनार के बीजों के समान उसके दांतों की श्वेत कान्ति की दमक जब अधरों की लालिमा से मिल जाती है तब वह श्वेतारुण प्रतीत होती है। श्यामसुंदर के एवं बड़े-बड़े सम्मोहित करने वाले नेत्रों के कोर अरुण हैं, मध्य भाग श्वेत और श्याम-पुत्तलिका कृष्ण वर्ण की है। नेत्रों में काजल की शोभा एवं तिरछी चितवन कामदेव के धनुष पर रखे बाण का सा लक्ष्य पर कटाक्षपात करती है, माथे के बायीं ओर बुरी नजर से बचने के लिये डिठौना लगा होता है, काँधे तक फ़ैली उसकी केशराशि पवन का साथ पाकर जब फ़हराती है तो वह अपने सुन्दर कोमल हाथों से उसे ठीक करते हैं। कण्ठ में कौस्तुभमणी, रंग-बिरंगे रत्नों, मणियों, मुक्ताओं के हार, गुंजमाल, एक स्वर्ण-हार और एक मोतियों का हार है परन्तु उसे वनमाला सर्वाधिक प्रिय हैं। सो उसके मित्रगण या यहां की गोपियाँ नित्य ही उसके लिये एक वनमाला का सृजन करती है और वह उसे धारण कराती हैं। उस वनमाल में पारिजात, कुन्द, मदार, तुलसी और कमल के समावेश की दिव्य सुगंध उस छलिये के आने की पूर्व-सूचना देने में सक्षम है। अनावृत वक्ष पर वह पटुका डाले रहता है। भुजाओं पर भी चंदन से बनी सुन्दर कलाकृतियाँ एवं स्वर्ण-निर्मित पीत वर्ण के बाजूबंद नीलवर्ण से मिलकर अनोखी कांति को प्राप्त होते हैं। हाथों में मोटे-मोटे स्वर्ण के कड़ूले, कमर पर करधनी एवं नीलवर्ण के पद-कमलों तक पीतांबर शोभा पाता है। हाथ में बंसी लिये बड़ी ही अलमस्त चाल से चलता है, कभी किसी गोपी को छेड़े तो कभी लता-पताओं से बातें भी करता है। पशु-पक्षी, वन्य जीव भी उसे मुग्ध से देखते हैं और गैयां तो टकटकी लगाकर इस अनुपम “सांवरे के सौंन्दर्य” का रसपान करती हैं। इससे अधिक मेरी भी स्मृति नहीं क्योंकि जो उसे देख ले, उसे फिर उसकी वेशभूषा की भी स्मृति रह पाये, यह संभव ही नहीं। देखने वाले को तो केवल उसका मुख और उसके नेत्र ही स्मृति में रहते हैं और उन नेत्रों में ही मानो समस्त अस्तित्व डूबा जाता है। तुझे सानन्द रहना है तो सावधान रहियो। तू सावधान रहेगी तब भी आशंका तो बनी ही रहेगी क्योंकि बरसाने में कुछ हो और वह न जाने, यह भी तो संभव नहीं। वह स्वयं कहाँ मानने वाला है; न जाने उसे “बरसाने” वालों से ऐसी छेड़-छाड़ में क्या आनन्द आता है। सास न चेताती तो संभवत: नयी ब्याहता गोपी के मन में इतनी तीव्रता से उस “सांवरे” को देखने की उत्कंठा भी न जगती। सास नहीं जानती कि उसने अपनी पुत्रवधू को “सांवरे” से बचाने के स्थान पर “सांवरे” के रूप माधुर्य में ही फ़ँसा दिया है। अब तो एक ही उत्सुकता, एक ही लगन कि हाय! कब आएगा वह दिन जब मैं भी उस रूप माधुर्य का रसपान करूंगी।*
*कोई भी पास-पड़ोस का कार्य हो तो वधू कहे कि आप बैठें, मैं करती हूँ। यही आशा कि कब “घर से निकलूँ” और कब “वह” मिलें। कब “साध” पूरी होवे। लक्ष्य के अतिरिक्त जब अन्य कुछ भी स्मृति में न रह जाये तो दैव और प्रकृति सभी आपके साथ हो जाते हैं। सारी परिस्थितियाँ आपके अनुकूल होने लगतीं हैं; अनायास ही “अघटन” घटित होने लगता है।*
*एक दिन “सांकरी खोर” से गुजर रही थी गोपी। सांकरी खोर, पर्वत-श्रृंखला के मध्य ऐसा स्थान है, जहाँ से एक ही व्यक्ति एक बार में गुजर सकता है। सर पर दही की मटकी, मुख पर घूँघट का आवरण और झीने आवरण के भीतर से चमकते दो चंचल नेत्र। चंचल नेत्र? अतिशय सौंन्दर्य को देखने की अभिलाषा में नेत्र “चंचल” हो गये हैं, उन्हें तो अब वही देखना है जिसके बारे में सुना है कि उसे “नहीं देखना।” नेत्र अब सब जगह, हर समय उसी को खोजा करते हैं, सोते-जागते उसी का चिन्तन किया करते हैं। कई बार तो इनकी चंचलता पर “लाज” आ जाती है। गोपी सांकरी खोर के मध्य ही पहुँची थी कि सम्मोहित करने वाला वेणु-नाद उसके कानों में पड़ने लगा और कानों में ही नहीं वरन् कर्ण-पटों के माध्यम से हृदय में प्रवेश करने लगा। वह रुकी और चलायमान नेत्रों ने अपना कार्य आरंभ किया कि कहाँ खोजें और क्षणार्ध में ही “सांकरी खोर” के दूसरे छोर पर, जहाँ से गोपी को जाना था, उसकी छवि प्रकट होने लगी। सामने से पड़ते सूर्य के प्रकाश के कारण वह स्पष्ट तो नहीं देख पा रही परन्तु अपनी सास की चेतावनी मस्तिष्क में कौंध गयी। हृदय में संग्राम छिड़ गया। मन कह रहा है कि देखना है और बुद्धि कह रही है कि नहीं, सास ने मना किया है। यहाँ तो संग्राम छिड़ा है, उधर वह “जादूगर” क्रमश: पास आता जा रहा है। हाय रे! कहाँ भागूँ? वहीं से जाना है और वहीं से “वह” आ रहा है। “वह” जब भी पकड़ता है तो “सांकरी खोर” में ही पकड़ता है, जब आप “अकेले” हों, उसे तब ही “पकड़ने” में आनन्द आता है। क्यों? क्योंकि यह संबंध स्थापित ही तब होगा जब “कोई दूसरा” न हो। उस नादान को नहीं मालूम कि “जहाँ जाना” है, वह “वहीं” तो है; वही तो लक्ष्य है, तुम जानो या न जानो, मानो या न मानो। हाय! कैसा सौंन्दर्य! कैसे नेत्र! कैसा दिव्य मुखमंडल! वह “सांवरा” शुद्ध मन रूपी लोह पात्र को चुंबक की तरह अपनी ओर बलात ही खींच रहा है, चित्त अब वश में नहीं, सारी इन्द्रियों ने मानो विद्रोह कर दिया है। आत्मा इस देह को छोड़कर उस परम चिन्मय से मिलन करना चाहती है।*
*हे प्रभु! सास उचित ही कहती थीं। सत्य कहूँ तो कह ही न सकीं; इनके “आकर्षण” की क्षमता का वर्णन कहाँ संभव है। हे जगदीश! अब तुम ही मुझे बचाओ! आज अच्छी फ़ँसी! कन्हैया अब बहुत पास आ गये। जब कोई उपाय न रहा तो गोपी ने मुँह घुमाकर पर्वत-श्रृंखला की ओर कर लिया। मन बुद्धि जब स्वयं ही सर्वस्व न्यौछावर करने को उतारु हों तो कोई बाधा भला कैसे रह सकती है। गोपी छुपने की, न देखने की, बचने की निरर्थक चेष्टा कर रही है और वह मुस्करा रहे हैं। अब वे एकदम पास आकर खड़े हैं। गोपी घूँघट में से देख रही है कि वह इधर-उधर घूमकर उसका मुखड़ा देखना चाहते हैं और बात करना चाहते हैं। देह जड़ हो गयी है; सामने जो आवरण में से दिख रहा है, वह लौकिक नहीं है। गुरु कृपा से तत्वज्ञान स्वत: ही से प्रकट हो रहा हैं- अनंत जन्मों में जिस आनन्द-पति परमेश्वर को पाने के लिए साधना की थी वह आनन्द आज साकार रूप लेकर ब्रज में प्रकट हो गया है और मैं भी गोपी शरीर धारण करके आ गई हूं। आत्मा और परमात्मा के दिव्य मिलन का जो प्रेम स्त्रोत था आज गुरु कृपा से श्याम मिलन के रूप में फ़ूट पड़ा है। गोपी की अन्तरात्मा आज गुरु तत्वज्ञान में स्नान कर गुरु कृपा से स्वरूप शक्ति युक्त हो रही है, परमात्मा से मिलन जो करना है। सौन्दर्य दैहिक न होकर पारलोकिक हो गया है। मन बुद्धि में आत्मा से परमात्मा के मिलन की अभीप्सा जाग उठी है।*
*तभी गोपी के कर्ण पटों में अकारणकरूण दिव्यातिमधुर वाणी ने रस धोल दिया-*
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*”चौं री सखी ! तू तो बरसाने में कछु नयी सी लग रही है। तोकूँ पहलै कबहुँ नाँय देखो !” यह कहते हुए नन्दनन्दन ने गोपी के कर का स्पर्श कर दिया। अचकचा गयी गोपी और उसने सिर पर रखी “मटकी” झट हाथों से फ़ेंक दी, “मटकी” फ़ूट गयी (मायिक संबंध नष्ट हो गया) दही बिखर गया जिसे बड़े परिश्रम से “जमाया” था, अब वह किसी कार्य का नहीं रह गया था। दोनों हाथों से उसने अपने मुख को ढक लिया। वह कनखियों से देख रही है कि नन्दनन्दन मुस्करा रहे हैं। इतनी क्षमता भी नहीं बची कि भाग पाये, उन्होंने रास्ता ही तो रोक लिया है, अब अन्य कोई मार्ग बचा ही नहीं है कि उनसे बिना मिले, बिना दृष्टि मिलाये, बिना अनुमति माँगे कहीं जाया जा सके। देर हो रही है और यह मानते नहीं, कुछ देर मौन खड़ी रहती हूँ, जब न बोलूँगी तो अपने-आप चले जावेंगे। कुछ देर मौन पसरा रहा। प्रतीत होता है कि वह किशोर जा चुका है, अच्छा, अब नेत्र खोलूँ। अचानक ही खिलखिलाकर हँसने का शब्द हुआ और गोपी ने चौंककर, मुड़कर, नेत्र खोल सामने देखा। अब जो देखा तो नेत्रों का होना सफ़ल हो गया! नेत्र उस रस को पी रहे हैं और आत्मा तृप्त हो रही है! देह तो जड़ हो ही चुकी है। बूँद, सागर को पीना चाहती है, सागर बूँद को अपना रहा है! मन रास! नृत्य! गोपी बेसुध हो रही है; नहीं जानती, वह कहाँ है? है भी कि नहीं! है कौन?*
*सुध आयी तो देखा कि घर में शय्या पर है और चारों ओर से उसके परिवारी जन और गोपियाँ घेरे हुए हैं। उसके मुख पर पानी के छींटे डाल रहे हैं। कोई बोली कि- “अम्मा! तुमने नयी-नवेली बहू अकेली चौं भेजी, मोय तो लगे कि जाये भूत लग गयो है। इतने में ही उसने सुना कि सास कह रही है कि- “मोय पतो है, जाये भूत-वूत कछु नाँय लगे, जाकूँ तो नन्द कौ पूत लगौ है।”*
*नन्दलाल के दर्शन से सफल सुनेत्रों से प्रेमाश्रुओं की अविरल झड़ी लगी है और फिर गोपी आँखें बंद करके श्याम-माधुर्य में लीन हो गयी। जिसने नन्दनन्दन को देख लिया, वह फ़िर अब क्या देखे और क्यों देखे?*
*जय जय श्री राधे*
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