*जात पात*
🔥🔥🔥🔥🔥
#रंगभेद_का_भारतीयकरण :
राम श्याम वर्ण के थे और लक्ष्मण गौर वर्ण के ।
ईसाई विद्वानों वामपंथी कपटी मुनियों और दिव्यांग दलित चिन्तको के मत से राम असवर्ण थे, लक्ष्मण सवर्ण :
सवर्ण अवर्ण और असवर्ण की खोज
वर्ण का अर्थ चमड़ी का रंग होता है , ये ईसाई संस्कृतज्ञों ने हमे पढ़ाया था । लेकिन आज एक नई जानकारी कि caste का अर्थ भी चमड़ी का रंग होता है , एक ईसाई संस्कृतज्ञ के मुह से सुनें ।
1776 के अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटेन का अमेरिका में लूटी जा रही धनसम्पत्ति से हिस्सा मिलना बंद हो गया ।उसके बाद अमेरिका में बसने वाले ईसाई यूरोप के गोरे ईसाई थे । उनको अपने सफ़ेद रंग पर इतना घमंड था कि भारत के 1947 में आजादी के 13 साल बाद 1960 तक, #काले और #गोरों को स्कूल और बसों में, अलग अलग ग्रुप में रहने को बाध्य किया जाता था । जिसको हम अखबारों के जरिये #रंगभेद या Apartheid के नाम से जानते थे । इसका सबसे वीभत्स रूप डच और ब्रिटिश शासन मे अफ्रीका मे देखने को मिला ।
जबकि भारत में चमड़े के रंग और रूप का कोई महत्व नहीं रहा कभी भी वरना #अष्टवक्र राजा #जनक के गुरु न हुए होते और #वेद_व्यास कुरु राज्य के गुरु न रहे होते ।भारत के पूज्य आदर्श राम और कृष्ण #श्याम वर्ण के ही थे।
लेकिन जब यूरोप ने पूरे विश्व को गुलाम बना लिया तो चमड़े के रंग और वाह्य शारीरिक संरचना के आधार पर, बाइबिल के थेओलॉजी के अनुसार दुनिया के लोगो को विभिन्न समूहों और नश्लों में बांटा , जिसका परिणाम भारत आज भी भुगत रहा है ।
र्जॉन मुइर जो एक ईसाई विद्वान था , जो 19 साल की उम्र में भारत आता है इंडियन सिविल सर्विसेज में , और जो इलाहाबाद और फ़तेहपुर में अंग्रेजी सरकार मे एक ऑफिसर था ,वही जॉन मुइर 29 साल की उम्र में मत्परीक्षा नामक एक पुस्तक लिखता है, और ईसाइयत को हिंदूइस्म से श्रेष्ठ साबित करता है ।सरकारी नौकरी में रहते हुए वो संस्कृत का इतना बड़ा विद्वान बन जाता है कि ” ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट्स ” नामक एक किताब लिखता है , जिसका डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक “शूद्र कौन थे ” , में बहुतायत रूप से उद्धृत किया है ।
उसी पुस्तक के पार्ट -२ सी कुछ ओरिजिनल टेक्स्ट्स पेश करा रहा हूँ , अंग्रेजी में जिसको कहते है – ” Right From Horses mouth “—
“ये नॉन आर्यन नश्ल के लोग अमेरिका के रेड इंडियन कि तरह कमजोर नश्ल के थे । दूसरी तरफ Arians ज्यादा organisesed enterprising और creative लोग थे, धरती पर अर्वाचीन जन्म लेने वाले ज्यादा सुदृढ़ पौधे और जानवरों कि तरह वे ज्यादा सुदृढ़ लोग । अंततः दो विपरीत राजनैतिक लोगों की तरह ही अलग दिखने वाले । तीन ऊपरी वर्गों को जिनको द्विज या आर्य के नाम से भी जाना जाता है , एक अलग विशेष क्लास के लोग । Arian इस तरह से एक सुपीरियर और विजेता नश्ल साबित हुई । इसको सिद्ध करने के लिए complexion को एक और सबूत के तौर पर जोड़ा जा सकता है । ( यही 3 तथाकथित वर्णो को सवर्ण मान लिया गया। जाति के क्रम मे भी इन्हे ऊंची जाति के नाम से जाना जाता है आज । बाकियों को शूद्र मानकर उनको OBC SC और ST मे विभाजित कर दिया गया )
संस्कृत में Caste को मूलतः रंग (कलर ) के नाम से जाना जाता है । इसलिए caste उनके रंग (चमड़ी के रंग ) से निर्धारित हुई । लेकिन ये सर्विदित हैं कि ब्राम्हणों का रंग शूद्र और चाण्डालों से ज्यादा फेयर था । इसी तरह क्षत्रियों और वैश्यों के भी इसी तरह फेयर complexion रहा होगा ।
इस तरह हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि कि एरियन -इंडियन मूलतः काले मूल निवासियों से भिन्न थे; और इस अनुमान को बल मिलता है कि वे किसी उत्तरी देश से आये थे ।
अतः एरियन भारत के मूल निवासी नहीं थे बल्कि किसी दूसरे देश से उत्तर (भारत) में आये , और यही मत प्रोफेसर मैक्समूलर का भी है । ”
From- Original Sanskrit Texts Part Second P. 308-309 ; by John Muir
जो संस्कृत विद्वान वर्ण और caste के भेद को भी नहीं समझ सकते ।वो चमड़ी के रंग के आधार पर सवर्ण अवर्ण और असवर्ण जैसे शब्दों से समाज को विभाजित करते है , उन्होंने किस संस्कृत ग्रन्थ को पढ़कर ये वाग्जाल फैलाया है ??
आप स्वयं देख सकते हैं कि रंगभेद के चश्मे से दुनिया को बांटने वाले और गुलाम बनाने वाले , 1500 से 1800 के बीच अमेरिका के 200 million मूल निवासी रेड इंडियन का क़त्ल करने वाले ईसाई विद्वान कितने शाश्त्रों का अध्यन कर इस निर्णय पर पहुंचे है ?
आजकल ईसाइयत फैलाने के लिए एक नयी शाजिश ये ईसाई फिर रच रहे है – AFRO_DALIT प्रोजेक्ट के नाम से , जिसके भारत के न जाने कितने क्षद्म ईसाई , दलित के वेश मे इस कार्य को आगे बढ़ा र्हए हैं / इन्ही संस्कृतज्ञ ईसाई विद्वानो के गढे हुए कुतर्कों के अनुवादों के अनुवादों के अनुवाद को आधार बना कर जब डॉ आंबेडकर “शूद्र कौन थे ” की खोज में वेदों कि सैर पर निकल जाते हैं , तो उनकी मंशा पर उंगली उठे न उठे लेकिन उनके सूचना के श्रोतों की विश्वसनीयता पर प्रश्चिन्ह अवस्य लग जाएगा ।
जिस देश के भगवान राम कृष्ण और शंकर श्याम वर्ण के हों वहां डार्क complexion के आधार पर सिर्फ ईसाई संस्कृत विद ही बाँट सकते है।शंकर जी अर्जुन को एक किरात के वेश मे दर्शन देते हैं जब वह वनवास के समय आयुध की खोज मे जाते हैं / हमारे ऋषि मुनि यहाँ तक कि मनुस्मृति के रचनाकार जंगल मे tribal जीवन व्यतीत कर धर्मग्रंथों की रचना करते हैं ; अब यही tribal ईसाई बनाए जा रहे हैं , अंग्रेजों की कार्यपद्धति को अपनाकर /
संस्कृत ग्रंथों में तो इसका कहीं जिक्र मिलता नहीं / ??
अनुमानों पर आधारित बायस्ड उनपढ़ कुतर्की और कट्टर ईसाई संसकृतविदो को आधार बनाकर लिखा गया भारत का इतिहास हम ढो रहें हैं न जाने कितने वर्षों से।
गलती उसकी नहीं थी जिसने इस कपोल कल्पना से भरी पुस्तक को #ओरिजिनल_संस्कृत_टेक्स्ट लिख के पेश किया।
गलती उनकी है जो इसको ओरिजिनल मान बैठे और उन Bigot ईसाइयों के फैलाये जाल में भहरा के गिर पड़े।
जब गीता कहती है
चातुस्वर्ण मया शृष्टि गुण कर्म विभागसह : अर्थात गुण और कर्म के अनुसार जो मनुस्य जो कार्य करेगा उसी वर्ण मे उसको वर्गीकृत किया जाएगा ।आज उसको एप्टिट्यूड टेस्ट के नाम से जाना जाता है , कि कौन सा बच्चा किस प्रॉफ़ेशन के लिए फिट है ?
देश का आज तक का सबसे विद्वान ब्रम्हाण और अर्थशास्त्री कौटिल्य उसको कहता है – शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलम शूद्रस्य कर्मम । वार्ता विद्या का एक अंग है : अंवीछकी त्रयी वार्ता दंडनीति इति विद्या । ये विद्या की कौटिल्य की परिभाषा है ।
तो डॉ आंबेडकर और दलित साहित्य में शूद्रों को menial जॉब अलॉट करने का काम मुइर जैसे Bigot ईसाई की ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट से पढ़कर लिखा होगा।
आंबेडकर साहित्य में वर्णित सवर्ण अवर्ण और असवर्ण की खोज इन्ही ईसाई bigot विद्वानों की रंगभेद और रंग से जुड़े उनके पूर्वाग्रह से उपजे शब्द है ।क्योंकि कुछ शब्द तो संस्कृत में हैं भी नहीं जैसे अवर्ण सवर्ण और असवर्ण शब्द जरूर हैं लेकिन वो उन अर्थों में प्रयुक्त नहीं होते जिन अर्थों में इन संस्कृत विदों ने प्रयोग किया हैं , और जहाँ से डॉ आंबेडकर ने कॉपी पेस्ट किया है ।
वर्ण और कास्ट को चमड़ी के रंग से परिभाषित करने वाले लोग बाइबल के Genesis मे नोह द्वारा Ham को दिये श्राप से उद्धृत है जिसको ईसाई थेओलोगीस्ट ऑर्गन ने तीसरी शताब्दी मे प्रतिपादित किया था ।
#गुरु_पूर्णिमा के दिन उन समस्त #गुरुओं_का_अभिनंन्दन जो हजारों वर्ष तक शिक्षादान देना अपना धर्म और कर्तव्य समझते रहे थे।
मैंने अभी कल एक पोस्ट डाली थी –
“यदि कोई शिक्षक अपने ज्ञान को, बिना पेमेंट लिए या बिना वेतन के, समाज को समर्पित करे तो आप उसका सम्मान करते हैं क्या ?
क्यों करते हैं ?”
इस पोस्ट पर बहुत से कमेंट आये थे।
अब वैदिक शिंक्षा वितरण प्रणाली पर एक दृष्टि।
वैदिक शिंक्षा प्रणाली कोई प्राचीन इतिहास का विषय नही है। आधुनिक शिक्षा के पूर्व तक भारत मे वही प्रणाली चलती आयी थी। उस प्रणाली का मूल मंत्र यह था कि शिक्षक बच्चों को शिंक्षा देते समय कोई भेद भाव नहीं करेगा, और न ही उसके मूल्य का अवदोहन करेगा। बालक की जो आर्थिक पृष्ठिभूमि होगी उसी अनुपात में ही दान लेकर शिक्षक बच्चों को शिंक्षा दान देगा।
यह कोई कपोल कल्पित कथा नही है। प्रमान है इसके।
1757 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को आपस मे लड़ कट कर विनाश के कगार पर पहुंचे मुघलो से कब्जाया तो धुँवाधार लूट शुरू किया। साथ मे शुरू किया भारत की समस्त संस्थाओं का सिस्टेमेटिक तरीके से विनाश।
किसी भी सिस्टम का विनाश करना हो तो उसके बारे में जानना आवश्यक है। यह बात वे जानते थे। ईस्ट इंडिया के डायरेक्टर्स में से शायद ही कोई व्यक्ति शुरुवाती छह सात दशकों में भारत आया था। भारत मे सिर्फ अनपढ़ जाहिल बिगोट ईसाई या काम चलाऊ पढ़ लिख सकने वाले ब्रिटिश ही कॉन्ट्रैक्ट पर भारत आते थे। लेकिन भारत के बारे में निर्णय ईस्ट इंडिया के डायरेक्टर्स और ब्रिटिश संसद लेती थी।
1800 में उन्होंने फ्रंसिस हैमिलटन बुचनान को भारत के #कृषि_वाणिज्य_शिल्प का विवरण इकठ्ठा करने का कार्य दिया और आने वाले समय मे उसका सम्पूर्ण विनाश किया।
भारत मे उनके पूर्व आने वाले बर्बर तुर्को मुघलो आदि में इस हद तक काइयां कल्चर नहीं थी। जाहिल वे तब भी थे, और जो आज भी उनसे नाता जोड़ते हैं, जाहिल वे आज भी हैं। हो सकता है कि अब उन्नत कर लिया हो स्वयम को ईसाइयो से सीख सीख कर।
ईसाई दर काइयां और बर्बर कौम थी। उनका धोखा देने की एक विशिष्ट तरीका था। लिख पढ़कर डॉक्यूमेंट तैयार करके कागज और कानून के हन्थियार से विनाश करने का तरीका । यह उनका प्रमुख हन्थियार कल भी था और आज भी है। जिसको प्रोपेगंडा या #इनफार्मेशन_टेररिज्म कह सकते हैं।
ब्रिटिश संसद में 1813 में यह चार्टर आया कि भारत मे ईसाइयत कैसे फैलाया जाय? निर्णय हुवा एजुकेशन के माध्यम से।
ईस्ट इंडिया कंपनी, ब्रिटिश संसद, और उसके सर्वेन्ट्स के बीच क्या योजना बनी इसको execute करने का यह तो नहीं पता, लेकिन मद्रास के गवर्नर #थॉमस_मुनरो ने जो 25 जून 1822 को सेंट फोर्ट जॉर्ज स्थित बोर्ड ऑफ रेवेनुए को खत लिखा, और जो लेटर वहां से हर कलेक्टर भेजा गया – उसकी कॉपी अटैच्ड है। उसका मजमून यह था कि अभी तक यूरोपियन्स ने भारत की देशी शिक्षा व्यवस्था के बारे में जो भी लिखा है, वह बिना प्रमाण का है, निराधार है। इसलिए उसके बारे में प्रामाणिक जानकारी एकत्र करने के लिए यह डेटा इकट्ठा किया जा रहा है। लेकिन कलेक्टर्स को खास हिदायत दिया कि इस व्यवस्था में कोई दखल नही दी जाय। डेटा एकत्रित करने का दूसरा कारण यह बताया कि यदि इन स्कूलों को पहले कोई सहायता मिलती रही हो , जो राज बदलने से बन्द हो गयी हो तो उसको पुणः शुरू करवाया जा सके।
(वस्तुतः यह परंपरा आज भी जारी है कि किसी देशी सिस्टम को नष्ट करना है तो इसी तर्क पर उसका अध्ययन और विनाश लोकतांत्रिक सरकारों द्वारा किया जाता है।
उदाहरण स्वरूप भदोही के कालीन के विनाश हेतु पिछले शताब्दी के अंतिम दशक में बनाये गए कानून।)
खैर जो भी हो अंततः वे उस शिंक्षा पद्धति का विनाश करने में सफल रहे।
लेकिन एक मत्वपूर्ण डेटा है यह उस वैदिक शिंक्षा के मॉडल की जिसमे इंफ्रास्ट्रक्चर नही, बल्कि ह्यूमन रिसोर्स महत्वपूर्ण था। मॉडर्न एजुकेशन के नाम पर जो भी कूड़ा पढ़ाया जा रहा है, उससे वह सुपीरियर था, और उस शिंक्षा को प्रदान करने वाला ब्राम्हण बिना भेद भाव के मात्र दान दक्षिणा पर ही शिंक्षा देते थे। यह प्रथा हजारो वर्ष से अबाध रूप से मैकाले के आने तक जारी रही।
उसी डेटा में एक सैंपल की तरह हमने तंजौर की शिक्षा व्यवस्था का यहां वर्णन है। तंजौर के नागपट्टनम से 28 जून 1823 को एकत्रित किये गए डेटा के अनुसार तंजौर की कुल आबादी 3, 82,667 थी। जिनमे तंजौर के 884 स्कूलों और 109 कॉलेजों में 17582 छात्र पढ़ते थे। जिनमे 16,649 हिन्दू छात्र थे और 933 मुसलमान छात्र थे।
■वर्ण क्रम में इनमें
★ 2817 ब्राम्हण छात्र
★369 क्षत्रिय छात्र
★ 222 वैश्य छात्र
★10786 शूद्र छात्र
★2455 अन्य कास्ट
के छात्र थे।
इन छात्रों में कुल कुल कन्या छात्राओं की संख्या 154 थी, जिनमे 125 शूद्र वर्ण से थी, और 29 अन्य कास्ट्स से थी।
यह धर्मपाल जी द्वारा संकलित पुस्तक
**हर हर महाकाल*

