 
                नेहा 27 साल की, पेशे से बैंक में काम करने वाली लड़की।
दिल्ली में उसकी नई पोस्टिंग हुई थी। छोटा-सा कमरा किराए पर लिया था, और हर सुबह 8 बजे वही रास्ता पकड़ती थी — मेट्रो स्टेशन तक रिक्शा लेकर।
पहले दिन एक दुबला-पतला बूढ़ा रिक्शावाला मिला —
सफ़ेद झक दाढ़ी, झुर्रियों से भरा चेहरा, और आंखों में अजीब-सी शांति।
“बेटी, कहां जाना है?”
“साउथ एक्स मेट्रो तक, बाबा।”
“चल बैठ जा, आराम से पहुंचा देंगे।”
उस दिन से वही रोज़ उसे स्टेशन तक छोड़ने लगा।
—
रिश्ता जो धीरे-धीरे बना…
हर सुबह वही रिक्शा, वही मुस्कान —
नेहा के लिए अब वो सफर आदत बन चुका था।
कभी ट्रैफिक में फँसते तो बाबा कहते —
“धैर्य रख बेटी, जो जल्दबाज़ी में भागता है, वो ज़िंदगी का मज़ा खो देता है।”
एक दिन नेहा ने देखा — बाबा की उँगलियाँ कांप रही थीं।
“बाबा, तबियत ठीक नहीं?”
“बस बेटी, थोड़ा बुखार है… पर रोज़ की कमाई रुक जाए तो दवा भी नहीं मिलती।”
नेहा ने कहा — “कल मैं पैसे नहीं दूंगी, दवा लानी है ना… तो मैं लाऊंगी।”
बाबा हंस दिए — “ना बेटी, तेरी सवारी ही मेरी दवा है।”
—
बरसात की शाम थी।
नेहा का ऑफिस लेट छूटा, सड़कें कीचड़ में डूबी थीं।
रिक्शा स्टैंड पर कोई नहीं था।
बस एक ही बूढ़ा खड़ा था — वही बाबा, सिर पर पुराना थैला रखे, पूरा भीग चुका।
“बाबा! आप अब तक रुके हुए थे?”
“कहा था न बेटी, अंधेरे में छोड़कर नहीं जाता।”
नेहा ने रिक्शे में बैठते हुए देखा — वो खुद कांप रहे थे, लेकिन उसने अपना पुराना छाता आगे कर दिया ताकि वो भीग न जाए।
—
अगली सुबह…
सुबह नेहा को फोन आया —
“बिटिया, वो रिक्शावाले बाबा अस्पताल में हैं, किसी ने नाम आपका लिखा बताया।”
वो भागी अस्पताल पहुँची।
बाबा को तेज़ बुखार और कमजोरी थी।
डॉक्टर ने कहा — “इनका कोई परिजन नहीं है, इलाज़ तभी होगा जब कोई जिम्मेदारी ले।”
नेहा ने बिना सोचे फॉर्म भर दिया —
‘नेहा वर्मा — बेटी’
—
कुछ दिनों के इलाज़ के बाद बाबा ठीक हुए।
नेहा रोज़ जाती, खाना ले जाती, बातें करती।
बाबा अक्सर कहते —
“तेरे पापा होते तो शायद ऐसे ही तेरी चिंता करते।”
नेहा चुप रह जाती —
क्योंकि उसके पापा उसे बचपन में छोड़ गए थे।
धीरे-धीरे नेहा उन्हें “बाबा” नहीं, “पापा” कहने लगी।
वो रिक्शा अब नेहा ने खरीद लिया, ताकि बाबा फिर काम न करें।
—
इंसानियत का नया पता…
कुछ महीनों बाद, नेहा ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक ट्रस्ट बनाया —
“चलो घर तक” फाउंडेशन
जो उन रिक्शावालों, ठेलेवालों और बुजुर्ग मज़दूरों की मदद करता था,
जो सड़कों पर दिन-रात मेहनत करते हैं।
जब किसी ने पूछा —
“नेहा, ये सब करने की प्रेरणा कहाँ से मिली?”
उसने मुस्कुराते हुए कहा —
“एक रिक्शावाला था, जिसने मुझे सिखाया —
पिता बनने के लिए खून का रिश्ता नहीं, दिल चाहिए।”
—
एक दिन बाबा हमेशा के लिए सो गए।
नेहा ने उनके रिक्शे के हैंडल पर फूल रखे और लिखा —
> “धन्यवाद पापा,
आपने मुझे सिखाया कि रिश्ते जन्म से नहीं, करुणा से बनते हैं।”
आज भी नेहा उस रिक्शे को अपने NGO के बाहर रखती है।
हर दिन जब कोई बूढ़ा मज़दूर वहाँ खाना खाता है,
तो उसे लगता है —
“बाबा अब भी वहीं हैं, मुस्कुराते हुए।”
—
कहानी का संदेश —
हर रिश्ता खून से नहीं बनता,
कभी-कभी एक दया भरी नज़र, एक थका हुआ हाथ और एक सच्चा दिल
ज़िंदगी की परिभाषा बदल देते हैं।
इंसान वही है, जो किसी अजनबी में अपना देख सके।

 
                         
                     
  
  
  
  
  
  
                                     
                                     
                                     
                                    