
जन शिक्षा के अधिकार पर संकट: एक समाजशास्त्रीय विवेचना
(भारत के लोकतंत्र, समता और सामाजिक न्याय के समक्ष खड़ा होता एक मौन विनाश)
✍️ “शिक्षा का अधिकार नहीं, दया का विकल्प बनता भारत”
“जब कोई राष्ट्र अपने बच्चों को शिक्षित करने से इनकार करता है, वह भविष्य के लिए दरवाज़ा नहीं, दीवारें बनाता है।”
आज भारत एक ऐसे संकट के दौर से गुजर रहा है जिसे न अख़बारों की सुर्खियाँ पकड़ रही हैं, न चुनावी भाषणों में स्थान मिल रहा है। यह संकट है — जन शिक्षा के अधिकार पर एक संरचनात्मक, संस्थागत और सांस्कृतिक हमला, जो चुपचाप हमारे लोकतंत्र की आत्मा को खोखला कर रहा है।
✍️ समाजशास्त्रीय विमर्श: शिक्षा का अधिकार, या वर्ग-चयनात्मक सुविधा?
भारत में “Right to Education Act, 2009” (RTE) ने बच्चों को 6 से 14 वर्ष की उम्र तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का संवैधानिक अधिकार प्रदान किया था। यह कानून, संविधान के अनुच्छेद 21A द्वारा समर्थित, सामाजिक समता की आधारशिला था। परंतु 2021 से 2024 के बीच जो घटनाएँ घटीं, उन्होंने यह दिखा दिया कि यह अधिकार अब केवल कागज़ी उम्मीद बनकर रह गया है।
✍️ 90,000 स्कूलों का बंद होना और 2 करोड़ बच्चों का स्कूल से बाहर होना न केवल एक नीतिगत असफलता है, बल्कि एक संस्थागत वर्ग-भेद का संकेत भी है।
1. पीयर बोर्दियू की “कल्चरल कैपिटल” की अवधारणा के संदर्भ में
फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियरे बोर्दियू का सिद्धांत कहता है कि समाज में शिक्षा केवल ज्ञान का साधन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पूंजी (Cultural Capital) होती है, जिससे कोई वर्ग अपनी श्रेष्ठता बनाए रखता है।
* जब सरकारी स्कूलों को बंद किया जाता है और शिक्षा केवल निजी संस्थानों के हवाले होती है, तो निम्न वर्गों की सांस्कृतिक पूंजी छिन जाती है।
* शिक्षा उन परिवारों तक सीमित रह जाती है, जो पहले से ही सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त हैं — इससे “प्रजनन” (reproduction) होता है – असमानता का, वर्चस्व का।
✍️ यह कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना के भीतर छिपा “तंत्रगत उत्पीड़न” (Systemic Oppression) है।
2. अमर्त्य सेन और “Capability Deprivation”
अमर्त्य सेन का “Capability Approach” बताता है कि शिक्षा किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता, विकल्प, और जीवन गुणवत्ता का विस्तार करती है।
जब गरीब और हाशिए पर पड़े समुदायों के बच्चों के स्कूल बंद किए जाते हैं, तो:
* उन्हें बाल श्रम, बाल विवाह, या अपराध के दायरे में धकेला जाता है।
* यह केवल अवसर की कमी नहीं, बल्कि संभावनाओं की हत्या है।
✍️ यह Capability Deprivation नहीं, बल्कि एक जन-वंचना है — जिसकी जिम्मेदारी राष्ट्र पर है।
3. शिक्षा का नवउदारवादी निजीकरण: ‘पब्लिक गुड’ से ‘मार्केट गुड’ की ओर
भारत में शिक्षा अब लोक कल्याण नहीं, निवेश का अवसर बन चुकी है।
* एडटेक कंपनियों, कोचिंग उद्योग, और कॉर्पोरेट विश्वविद्यालयों ने ज्ञान को वस्तु बना दिया है।
* यह एक “नवउदारवादी शिक्षा व्यवस्था” (Neoliberal Education System) है, जो कहती है — “जो खरीद सकता है, वही पढ़ सकता है।”
✍️ वह बच्चा जो मध्यप्रदेश के किसी आदिवासी गाँव में स्कूल बंद होने से खेतों में मजदूरी कर रहा है, उसकी कोई ‘मार्केट वैल्यू’ नहीं है — इसलिए वह ‘सिस्टम’ के लिए अदृश्य है।
4. भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय का घातक उल्लंघन
अनुच्छेद 15, 16, 21A, 38, और 46 — ये सभी सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को न्याय, अवसर और शिक्षा की गारंटी देते हैं।
* जब संविधानिक संरक्षण प्राप्त बच्चे शिक्षा से वंचित होते हैं, तो यह केवल सामाजिक अन्याय नहीं, बल्कि संविधान के साथ विश्वासघात है।
✍️ यह ‘संविधान’ बनाम ‘नव-राज्य’ का संघर्ष है।
5. लोकतंत्र की नींव हिलती है: शिक्षा नहीं, तो नागरिक नहीं
भारतीय लोकतंत्र की आत्मा साक्षर, विवेकशील और भागीदारी करने वाले नागरिकों पर टिकी है।
* बिना शिक्षा, व्यक्ति सिर्फ़ मतदाता रह जाता है — नागरिक नहीं।
* वह भावनाओं से संचालित होगा, तर्क से नहीं — यह तानाशाही को पनपने का सबसे सरल रास्ता है।
“अशिक्षित जनता, शोषक व्यवस्था की सबसे बड़ी संपत्ति होती है।”
✍️ यह संकट केवल शिक्षा का नहीं — यह भारत की आत्मा का संकट है
आज यदि बच्चे स्कूल से बाहर हैं, तो कल भारत विकास के पथ से बाहर होगा। यदि शिक्षा अधिकार नहीं, उत्पाद है, तो भारत समाज नहीं, बाज़ार बन जाएगा; और यदि शिक्षा केवल कुछ वर्गों तक सीमित है, तो भारत लोकतंत्र नहीं, शोषक सत्ता संरचना बन जाएगा।
✍️ प्रश्न देश के समक्ष —
1. क्या भारत संविधान के वादे को निभा रहा है, या वर्ग-संरचना की रक्षा कर रहा है?
2. क्या स्कूल बंद करके हम भविष्य का “विकास” कर रहे हैं, या एक पूरी पीढ़ी को “विलुप्त” कर रहे हैं?
3. क्या यह संकट किसी बाहरी आक्रमण से आया है, या यह हमारे भीतर उपजा एक सामाजिक षड्यंत्र है?
✍️ समाधान की दिशा: केवल नीतियाँ नहीं, दृष्टिकोण बदलें
* शिक्षा को “न्याय” के दृष्टिकोण से देखना होगा, न कि “सेवा” के।
* स्कूल पुनः खोलने की मुहिम एक राष्ट्रीय संकल्प बने — महात्मा गांधी के “नैतिक राष्ट्र” की तर्ज पर।
* बजट का न्यूनतम 6% शिक्षा पर खर्च हो, और नीति आयोग को प्रतिवर्ष “शिक्षा समावेशन रिपोर्ट” प्रस्तुत करनी चाहिए।
* जनसंघर्ष और समाजिक आंदोलन ही इस मौन नरसंहार को रोक सकते हैं।
✍️ अंतिम वाक्य:
“अगर आज भारत अपने सबसे गरीब बच्चे को कलम नहीं दे रहा, तो वह अपने हाथ में तानाशाही की तलवार थमा रहा है।”