
घर जाते ही मां की प्लानिग होने लगती है कि _बच्ची आई हैं! इनका सोहिना बहुत पसंद है तो बनाओ ताकि मन भर खा लें।
उसी दिन रात में उड़द की और चना या मटर की दाल भिगो दी जाती है।
सुबह उठकर उसे मां खुद ही मल मल कर धोएंगी ताकि सारे छिलके निकल जाएं। बहन या भौजाई ने पीस दिया तो ठीक वरना मां खुद ही दाल पीसने सिल लोढ़ा लेकर बैठ जाएगी।
छोटा भाई दुकान तक दौड़ाया जायेगा कि जाओ जल्दी से जीर मिर्च गांही (जीरा, काली मिर्च, हींग) ले आवो।
हमारे यहां के सोहिना में नमक संग बस यही तीन मसाले डालते हैं।
किसी को हंसिया और बाल्टी देकर अरबी के खेत में उसके पत्ते काटने के लिए भेजा जाएगा।
अरबी के पत्ते काटते समय एक बात का खास ध्यान रखना पड़ता है कि आपके कपड़े काले रंग के हों वर्ना एक बार जो अरबी का दाग लगा तो कभी नहीं छूटता और दाग भी इतना गन्दा दिखता है कि मानो खून लगा हो।
जिस दिन सोहिना बनता है उस दिन लगता है कि आज कोई त्यौहार हो। गांव में दाल चावल रोटी सब्जी से हटकर कोई अन्य पकवान तब बनते हैं जब कुछ ख़ास बात हो या त्यौहार हो।
जब किसी के घर की रसोई से यूं स्वादिष्ट पकवान की सुगंध आती है तो लोग पूछने लगते हैं कि _लागत बा आज कुछू नीक नोहर बनत बा! (लगता है कि आज कुछ अच्छा भोजन बन रहा है।
दाल की पीठी जब तैयार होती है तब नमक, मिर्च, मसाला चखने के लिए हथेली पर थोडी सी पीठी मिलती है जो मुझे बहुत पसंद है।
जिस दिन घर में सोहिना, फ़रा इत्यादि व्यंजन बनते हैं उस दिन घर के सारे सद्स्य रसोई में हाथ बंटाते हैं।
कोई दाल की पीठी तैयार करेगा,
कोई पत्तो पर पीठी लगाकर सोहिना लपेटेगा,
कोई चटनी पीसने की तैयारी करेगा तो कोई चूल्हा जलाकर बनाने के लिए बैठेगा।
जैसे बनकर तैयार होगा कोई सबको गर्म गर्म परोसना शुरु कर देगा।
यूं गांव में बने सामान्य से व्यंजन भी बहुत स्वादिष्ट लगते हैं क्योंकि मिल जुलकर बनाने और खाने का आनंद ही कुछ अलग होता है।