
बरनवाल वैश्य का अभ्युदय व पतन
(1) सज्जन वृन्द शहर बरन में महाराजा अहिबरन की सन्तान (बरनवाल, जाति) लगभग 3800 वर्ष तक अर्थात सन् 991 तक दिल्ली नरेशों की अध्यक्षता में बड़ी शान्ति के साथ शासन करती रही। परन्तु दसवीं शताब्दी के अन्त में “बलीयसी केवलमीश्वरेच्छ” समय ने पलटा खाया अर्थात काल चक्र और कर्म की गति का प्रादुर्भाव होने से हिन्दुओं में चहुंदिशि द्वेषानल प्रज्वलित हो उठी जिसका अन्तिम परिणाम हिन्दू राज्य का पतन तथा यवन राज्य का प्रादुर्भाव समझना चाहिये।
(2) चुनांचः सन् 997 ई० में दिल्ली नरेश की प्रेरणा से कोल या अलीगढ़ के राजा हरदत्त डोर ने बरन के राजा श्री रुद्रपाल को विजय करके उसका बध करते हुये बरनवाल जाति को वहां के शासन भार से पदच्युत कर दिया और फिर उसने भी वहां एक गढ़ का निर्माण किया जिसकी स्थिति इस समय बालायकोट प्रसिद्ध है।
(3) राजा चन्द्रसैनडोर के समय सन् 1191 में शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने भारत पर चढ़ाई करते तमय प्रथम शहर बरन पर आक्रमण किया। परन्तु महाराजा पृथ्वीराज की सहायता के कारण उसे विजय न कर संका वरन् भाग कर लाहौर पहुंचा। किन्तु जब सन् 1193 ई० में गौरी सुल्तान ने पृथ्वीराज ही को विजय कर लिया तब उसके सेनापति कुतबउद्दीन ने फिर किला बरन को जा घेरा। चुनांचः तारीख बुलन्दशहर के पृष्ठ । 96 व 204 से प्रकट होता है कि कुतबुद्दीन ने राजा के दो नमकहराम नौकरों अजयपाल डोर और हीरासिंह ब्राह्मण से मिलकर किला बरन को विजय कर लिया। क्योंकि अजयपाल डोर ने बरन की हकूमत के लालच से किले का दरवाजा खोल दिया था अतएव उपरोक्त सेनापति ने किले में घुस कर राजा चन्द्रसेनडोर का बध कर डाला और बरन शहर का शासन काजी नूरूद्दीन गजनीवाल को जो कि गौरी सुल्तान का सहपाठी था सौंपा गया। काजी महोदय के वंशज अब तक बुलन्दशहर में गौजूद हैं किन्तु अजयपालडोर की नमकहरामी का विचार करते हुये कुतबुद्दीन ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने पर मलक नुहम्मद राज कद का पद प्रदान करके केवल बरन का चौधरी निर्मित किया। चुनांचः अजयपालडोर के वंशजों को आदर की दृष्टि से चौधरी अवश्य कहते हैं परन्तु अपनी स्वभाविक टेबों के कारण साधारण जन समुदाय में वह टंटा (झगड़ालू) अधिक प्रसिद्ध हैं। क्योंकि सन् 1780 ई० के सिक्खों के आक्रमण के समय इन्होंने ही बालायकोट की खिड़की खोल कर घरों को लुटवा दिया था और फिर सन् 1857 ई० के गदर में सबसे पहिले इन्ही लोगों ने विद्रोहियों का साथ दिया था।
(4) महाराजा अहियरन की सन्तान सन् 997 ई० से अपना समय कृषि जमीदारी वाणिज्य-व्यापार तथा तरकारी नौकरी द्वारा विताने लगी थी जैसा कि मनु धर्म शास्त्र के अध्याय 10 के 83 वें श्लोक का अभिप्राय है जिसका अर्थ यह है कि आपदाकाल में ब्राह्मण क्षत्री भी वैश्य वृत्ति से अपनी जीविका उपार्जन कर सकते हैं। परन्तु सन् 13.30 ई० में उनके ऊपर एक और अकस्मात घटना का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात बादशाह मुहम्मद तुगलक की निर्दयता का प्रथम आक्रमण शहर बरन पर हुआ जिसमें बादशाह ने सम्पूर्ण नगरवासियों का इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर बध कराया और प्रतिष्ठित पुरुषों के सिर किले के कंगूरों
पर लटकवाये जिनमें अधिकतर संख्या बरनवाल जाति की थी। उसी समय इस जाति के कुछ लोग अपनी जान माल की रक्षा के लिये इस्लाम धर्म स्वीकार कर दिल्ली के निकटवर्ती इलाके में बस गये। उसी समय कुछ लोगों ने अपने धन व शहर को छोड़ निकट के जंगलों व पहाड़ों की शरण ली तथा उसी समय कुछ लोग अपनी जान व धन की रक्षा के लिये सदैव के लिये अपनी जन्म भूमि को छोड़ पूर्वी प्रान्तों में जा बसे।
अब कदाचित हमारे सज्जन वृन्द यह प्रश्न उठायेंगे कि वह पूरब ही की ओर क्यों गये पश्चिम की ओर क्यों न गये। इसका कारण साफ प्रकट है कि उस समय मुसलमानी हकूमत का डंका पश्चिम ही में पंजाब से आगरे तक बड़े जोर से बज रहा था और पूर्वी प्रान्त ही उस समय मुसलमानी हकूमत से बचे हुये थे। चुनांचः कलकत्ता, रानीगंज, हजारीबाग, मुंगेर, भागलपुर, पटना, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, चम्पारन, सारन, गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ़, रसड़ा, बलिया, गाजीपुर, बहराइच, खेरी, लखीमपुर, सुल्तानपुर, बनारस, जौनपुर. मिर्जापुर में आजकल भी इस जाति के लोग अधिकता से पाये जाते हैं।
(5) बादशाह मुहम्मद तुगलक के लौट जाने पर शहर बरन में शांति स्थापित हो गई तो फिर वही काजी महोदय के वंशज वहां के शासक हुये। परन्तु उन्होंने अपना हैडक्वार्टर बुलन्दशहर से मालागढ़ परिवर्तन कर दिया और शान्ति का सुखमय देख भागे हुये निवासियों में से वह लोग जो थोड़ी-थोड़ी दूर जंगलों व पहाड़ों में चले गये थे वापिस आ गये और वापिस आये हुये बरनवाल अपना जीवन निर्वाह राज्य कर्मचारी तथा वाणिज्य व्यापोर आदि उद्यमों से करने लगे।
सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के अन्तिम समय में बादशाह अकबर ने परगना बरन की कानूगोई बरनवालों ही के लिये तजवीज की और ला० संन्तोषराय इस वंश के प्रथम कानूँगोय हुये और लगभग ढाई सौ वर्ष तेक यह पद इसी वंश में बना रहा। परन्तु औरंगजेब बादशाह के समय में बरनवाल कानूँगोयान में से कालेराय उर्फ अजमत उल्ला मुसलमान हुये जिनके शाही दरबार से नवाब की नदवी तथा चौरासी ग्राम की जागीर इनाम के तौर पर प्रदान की गई। इनकी हिन्दू सन्तान में फतहचन्द व गोपीनाथ दोनों लड़के तथा हकीकतराय नामक पोता अपने धर्म में दृढ़ रहे। परन्तु पिता के इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने से हिन्दू जनता में लज्जित हो न जाने कहां चले गये। परन्तु कालेराय की मुस्लिम सन्तान मुहम्मद हयात व मुहम्मद रोशन के वंश की इतनी वृद्धि हुई कि शहर बरन तथा उसके निकटवर्ती इलाके तथा हापुड़ व मेरठ के निकट और सम्भल बिसौली के निकट के इलाके में अब भी वह लोग मुसलमान बरनवाल या शेख करके पुकारे जाते हैं यही नहीं वरन् कालेराय की सन्तान 80 वर्ष तक तो शहर बरन में बड़ी प्रतिष्ठित रही चुनांचः तारीख बुलन्दशहर के पृष्ठ 202 व 204 से प्रकट होता है कि सन् 1876 ई० में मुसलमान बरवालों में मु० शहाबुद्दीन मुलाजिम पुलीटेकल एजन्ट मेवाड़ (जिन्होंने हाल में एक जदीद मस्जिद बालायकोट में साड़े तीन हजार की लागत से तामीर कराई है) नवाब मासूम अली खां, माशूक अली खां जिन्होंने कि अब से 150 वर्ष पहिले अपनी सकूनत मियां सराय वाकै सम्भल करार दी थी जिनके अधिकार में चन्द मुआफ़ियात व दुकानें व चांदपुर की जमींदारी है बहुत प्रतिष्ठित हैं चूंकि उपरोक्त नवाब महोदय के अख्तर बेगम उर्फ मुबारिक उल निसा बेगम के सिवाय कोई सन्तान न थी। अतएव वह सम्पूर्ण जागीर उसी बेगम की सन्तान के पास रही
चुनांचः आधुनिक समय में नवाब आशिक हुसैन खां आनरेरी मजिस्ट्रेट दर्जा अव्वल उपरोक्त बेगम साहिबा की सन्तान में शेख अन्सारी प्रसिद्ध हैं।
(6) कस्बा बरन के हिन्दू बरनवालों में सब से पिछले प्रसिद्ध पुरुष ला० शीतलदास कानूँगोय हुये जिन्होंने सन् 1830 ई० में बुलन्दशहर में एक गंज बसाया और एक सराय बनवाई। चुनांचः गंज और सराय अब भी उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हैं और उन्हीं के वंशजों के पास मौजूद हैं इसके सिवाय कई ग्राम की जमीदारी भी उन्होंने खरीदी थी जो अब तक उन की सन्तान के पास पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
(7) सन् 1798 ई० में शहर बरन से मालागढ़ तक एक मरहटा सरदार माधवराव फालकिया का अधिकार हुआ। किन्तु 1804 ई० में कर्नल जेम्स स्किनर ने उसे विजय करके उसकी 28 ग्राम की जागीर को जब्त करके उससे किला बरन व मालागढ़ खाली करा लिये और उसको कुछ वजीफा देकर उसके लड़के रामाराव फालकिया को मये उसके साथी 600 सवारों के कम्पनी की सेना में दाखिल कर लिया। किन्तु अंग्रेजी राज्य के प्रारम्भ में यह कस्बा बहुत छोटा और वे रौनक था परन्तु जब सन् 1824 ई० में यहां जिले का सदर मुकाम हुआ तब ही से इसकी उन्नति प्रारम्भ हुई है।
(8) और अब तक बरन के बरनवाल सरकारी कर्मचारियों तथा जमींदारों व व्योपारियों की हैसियत से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। परन्तु वह लोग जो मुहम्मद तुगलक के अत्याचारों से तंग आकर पूर्वी प्रान्तों में चले गये थे उनमें से कुछ लोग तो शान्ति स्थापित होने पर पश्चिमी प्रान्तों को लौट आये। चुनांचः मुरादाबाद, बरेली, बदायूं प्रान्तों की बरनवाल जाति के प्राचीन पुरुषा अब से 550 वर्ष पहिले सम्भल में एक सूबेदार के साथ पूरब ही से आये थे और पीछे से उनके कुटुम्बी तथा स्नेही जन उनके पास सुविधानुकूल समय-समय पर आते रहे। परन्तु जब लोधी वंश के समय में पेशावर से लेकर मुर्शिदाबाद तक अर्थात सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अशान्ति सी फैल गई और आने जाने की सुविधा न रही तो यहां के यहां रह गये और पूरब के पूरब में, और वह उस समय के डाक के सुप्रबन्ध के अभाव के कारण स्वदेश वासियों से पत्र व्यवहार भी न कर सके, मानों उनका उसी समय से सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
(9) कहा जाता है कि उसी अशान्ति के समय पिता का पुत्र से, भाई का भाई से, पड़ोसी का पड़ोसी से. स्त्री का पुरुष से ऐसा सम्बन्ध टूटा कि एक दूसरे की स्थिति का पता नहीं। किन्तु फिर भी वह दुर्दिन निर्विघ्न समाप्त नहीं हुये वरन् किसी को अपनी आकृति बदलनी पड़ी और किसी को निशंक रहने के लिये सुरक्षित स्थान में छिपना पड़ा। बालविवाह की कुप्रथा उसी समय से प्रचलित हुई, जनेऊ छोड की की उपासना तभी से प्रारम्भ हुई। आज उनका रूप बिलकुल बदला हुआ है। उनको अपने प्राचीन गौरव की कुछ भी ज्ञान नहीं। स्थान-स्थान के रीति रिवाज विशेषतः से बदले हुये हैं, यही नहीं वरन् कितने ही कट्टर सुजाति भाईयों को आत्महत्या भी करनी पड़ी।
(10) चुनांचः फिर यह लोग स्थाई रूप से जहां तहां आबाद होकर भिन्न-भिन्न (व्यौपारं, नौकरी, खेती) से अपना समय व्यतीत करते हुये बरनवाल, बरनवार, बन्नवार, बन्दरवाल, बनियां, बक्काल नामों से प्रसिद्ध हो गये और प्रथम बार जहां जहां जाकर बसे अथवा जिस-जिस प्रकार से अपनी जीविका उपार्जन करने लगे
वही स्थान या व्यवसाय उनकी अल्लों के नाम से प्रसिद्ध हो गये हैं। इस जाति में गुरू, पुरोति की प्रथा परम्परा से चली आती है और इनके पुरोहित प्रायः गौड़ ब्राह्मण होते हैं, जिनकी बनाई हुई कच्ची रसोई वह ग्रहण करते हैं। मुहम्मद तुगलक की अशान्ति के समय से यद्यपि उनमें यज्ञोपवती का रिवाज उठ सा गया था परन्तु आश्विन मास के पितृ पक्ष में प्रतिवर्ष जनेऊ धारण कर अपने पितरों का तर्पण किया करते थे। आधुनिक समय में उनके दो दल हो रहे हैं (1) पूर्वी (2) पश्चिमी।
इनमें से पूर्वी समुदाय के लोग अधिकतर व्यौपार प्रिय पाये जाते हैं, परन्तु पश्चिमी प्रान्तों के निवासी नौकरी ही को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य समझते हैं। पूर्वी पश्चिमी दोनों दलों में कराव या नाता अथवा घरेजा या विधवा विवाह का रिवाज सन् 1925 ई० तक तो कतई नहीं था किन्तु अब समय की गति तथा अन्य अन्य उच्च कोटि की जातियों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्री तथा वैश्य वर्ण की अग्रवाल आदि दूसरी जातियों में इसका रिवाज होता देख बरनवाल महासभा ने भी इस प्रस्ताव को पास कर दिया है। परन्तु प्राचीन काल ‘से जिन बरनवालों में विधवा विवाह का रिवाज सुनने में आया है वह लोग इस समय चांचरे, सुर्तवाला, टांचरे, अथवा निचरंगे या फ्रीक दोयम कहलाते हैं। उनका पहिले से तो रोटी बेटी का परस्पर व्यवहार नहीं था पर अब सब मिलते जा रहे हैं, किन्तु अब भी उनमें कुछ ऐसे व्यक्ति देखे जाते हैं जो अपने प्राचीन नियमों की पैरवी करते हुये विधवा विवाह के विरोधी माने जाते हैं।
बरनवाल चन्द्रिका उनकी मुख्य पत्रिका है जिसका उद्घाटन सन् 1905 ई० में हुआ था। वर्तमान समय में इसके सम्पादक बा० बेचूलाल जी हैं जिनका फोटो नीचे दिया जा रहा है।
धर्मशास्त्र में कहे हुये 16 संस्कार दूसरी उच्चकोटि की जातियों की नांई बरनवाल जाति में भी नियम पूर्वक होते हैं।’ चुनांच; गर्भाधान के उपलक्ष्य में रजोधर्म के प्रायः 5 या 7 या 9 दिन बाद शास्त्र के नियमानुसार गर्भ की स्थिति होती है फिर आठवें महीने में परोजन या चौक प्रायः पहिले बच्चे के समय होताहैहै। सन्तान उत्पत्ति के समय जातकर्म संस्कार होता है, फिर 15 दिन या एक मास का बच्चा होने पर उसका नामकरण किया जाता है। जन्म से पांचवें या छठे महीने बच्चे को शुद्ध वस्त्र पहिना कर खुली हवा में लाने का निष्कर्मन संस्कार होता है।’ फिर छठे या आठवें महीने बच्चे को कुछ हल्का भोजन अर्थात घी में अन्न मिलाकर अथवा खीर चटाकर अन्नप्राशन नामक संस्कार किया जाता है। तीसरे या पांचवें या सातवें वर्ष उसका मुंडन या चूडाकर्म संस्कार होता है। 5 से 7 तक की उम्र में कानों की नाड़ी को बचा कर बच्चे के कान बीघे जाते हैं जिसे कर्णवेध संस्कार कहते हैं। यही विद्याध्ययन का शुभ समय माना जाता है।” उपनयन या जनेऊ संस्कार यद्यपि यवन राज्य के प्राबल्य में लोप सा हो गया था परन्तु हर्ष का विषय है कि अब फिर इसका प्रचार हो चला है। समावर्तन संस्कार में वर कन्या के गुण, स्वभाव (गण, नाड़ी, नक्षत्र आदि) की जांच करके परापर्त शुद्ध की जाती है।” विवाह संस्कार बरनवाल जाति में प्रायः देव विवाह ही. शास्त्रानुकूल किया जाता है, जिसमें हवन, नवग्रह पूजन आदि कई उत्तम विधान दर्शाये जाते हैं, क्योंकि इस जाति में सब से उत्तम गुण कन्याओं पर रूपिया न लेने का है, जबकि दूसरी वैश्य जातियों में इस कुप्रथा का खुले धड़े दिग्दर्शन होता है।” इसके अतिरिक्त इस जाति में गृहस्थाश्रम भोग कर कोई-कोई मनुष्य वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम का भी आश्रय लेते हैं। किन्तु आम तौर से इसका चलन अविद्या के प्रचार से कम हो गया है सो यह व्यवस्था सब ही जातियों की है। सोलहवां संस्कार अन्त्येष्टि है जिसमें मृतक शरीर को घी, चन्दन आदि सुगंधित वस्तुओं के साथ जला कर उसका तीजा स्वयम, दसवां महा ब्राह्मण द्वारा कराया जाता है और द्वादशा (तेरहवीं) के कृत्य पुरोहित द्वारा कराये जाते हैं।
(11) इस जाति के विषय में प्राचीन काल के विद्वानों ने जो सम्मतियां दी हैं उनमें से कुछ यहां उद्धृत की जाती हैं-
(क) मिस्टर योगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए., डी.एल., प्रोफेसर संस्कृत कालिज, नदिया अपने स्वरचित जाति इतिहास के पृष्ठ 215 पर इस प्रकार लिखते हैं कि बरनवाल बड़े पक्के हिन्दू हैं। इन लोगों का निकास शहर बरन (बुलन्दशहर) से है। यह लोग अपनी ब्याहता स्त्री को नहीं त्यागते और न विधवा का विवाह करते हैं, और मुख्य-मुख्य व्यक्ति इस जाति के यज्ञोपवीत धारण करते हैं परन्तु माली हालत में कुछ गिरे हुये हैं।
(ख) कुक्स ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स अर्थात मिस्टर डब्ल्यू साहब रचित अंग्रेजी जाति इतिहास उत्तरी पश्चिमी प्रदेश व अवध की प्रथम जिल्द में लिखा है कि बरनवाल बड़े कट्टर हिन्दू हैं इनका माखज़ (नुख्य निवास) शहर बरन (जो बुलन्दशहर का प्राचीन नाम है) से है। बादशाह मुहम्मद तुगलक के समय में यह लोग भिन्न-भिन्न स्थानों में भाग गये थे, वह अपनी विधवाओं का विवाह नहीं करते न लड़की पर रूपिया लेते हैं न अपनी ब्याहता स्त्री को घर से निकालते हैं।
(ग) राजा लक्ष्मणसिंह जी डिप्टी कलक्टर बुलन्दशहर अपने स्वरचित इतिहास बुलन्दशहर के पृष् 298 पर लिख रहे हैं कि बरनावाल जाति में परस्पर ईर्ष्या व द्वेष का भयावना रोग इतना उन्नति कर रह है कि जिसके कारण कदाचित सहोदर भ्राता की भी उन्नति इस जाति के लोगों को असहाय हो रही है कदाचित यही मुख्य कारण उनकी अवनति का प्रतीत होता है।