
*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
फितरत तो कुछ यूं भी है इन्सान की*-!
वारिश खत्म हो जाए तो छतरी बोझ लगती है*-!!
वक्त वक्त की बात है साहब जरूरत पूरी होते ही फितरती इन्सान का इमान बदल जाता है!
इसकी गवाही वर्षांत खत्म होने के बाद छतरी दिया करती है!
जरूरत इन्सान को स्वार्थी और लालची बना देती है!
जो कभी बादशाही जीवन जिया करते थे उनको मसालची बना देती है।
समय के खेल को कोई नहीं समझ पाया!
समय कभी राजा हरिश्चंद्र को डोम के घर बिकवा दिया तो कभी भगवान राम को बनवासी बना दिया!
फूलों से भी नाजुक जनक दुलारी को रावण की दासी बना दिया!
न जाने कब क्या हो जाए!
कब क्या बदल जाए सब कुछ समय के गर्भ में समाहित है।
बदलती दुनिया में कुछ भी असम्भव नहीं!
जिस चांद को लेकर पुरातन काल से आज तक भौकाल कायम था महज चन्द दिनों में ही सारे राज से पर्दा हट गया!
लोग बदल रहे हैं!
समाज बदल रहा है!
लोगों का मिजाज बदल रहा है!
धरती वही आसमान वहीं बस ताज बदल रहा है!
परिवर्तन की पराकाष्ठा देखिए!
जरा सोचिए हम क्या थे क्या हो गये! अब न गांव गांव रह गये!
न शहर शहर! हर आदमी के चेहरे पर चेहरा सभी के दिल में नफ़रत का भरा है जहर!
फिर भी गांव के लोग पुरातन परम्परा के पारितोषिक को स्वीकार कर अपने अधिकार मान सम्मान के साथ जी रहे हैं!
शहर के लोग जिनको जाहिल गंवार बोलते हैं वे आज भी भारतीय संस्कृति की धरोहर और शान है!
पुरातन परम्परा के निर्वहन मे गांव के लोग आज भी सनातन संस्कृति की पहचान गाय को पालते है!
कुत्तों को आवारा छोड़ देते हैं!
वहीं साहब शहर के तरक्की सुदा लोग कुत्ता को घर में पालते हैं !
गाय को आवारा छोड़ देते हैं!
गांव के यतीम खानो में गरीब के बच्चे पढा करते है!
और शहर के बृद्धा आश्रमों में अमीर के मां-बाप रहा करते हैं।
गांव का रहने वाला गाय को जंगल में दूर चराने जाता है! वहीं शहर का अमीर कुत्तों को पार्क में टहलाने जाता है!
पहले जब हम अनपढ़ गंवार थे दरवाज़ों पर स्वास्तिक के साथ ही सु स्वागतम् शुभ आगमन लिख कर भारतीय परम्परा की जीवन्तता कायम रखते थे!
आज आधुनिक जमाने में जब लोग लग्जरी गाड़ियों से चलते हैं आलीशान बंगलों में रहते हैं तब उनके दरवाजे के बाहर लिखा मिलता है सावधान यहां खतरनाक कुत्ता रहता है।
गजब साहब कभी मकानों के मुडेर पर बैठकर कागा बता दिया करता था आज मेहमान आ रहा हैं!
अब मोबाईल ही हर रिश्ते का समाधान बता रही है!
कच्ची मकानों में नरम दिल इन्सान बसते थे!
आज कंक्रीट के मकानों में मतलब परस्तो की बस्ती बस गयी!
जिनके चेहरे पर मुस्कराहट लेकिन दिल में नफ़रत की ज्वाला धधक रही है।
अभी दो दशक पहले तक हर घर में मुखिया का दबदबा था!
आज महज बीस बरस के भीतर ही घर में बहुरिया का दबदबा कायम हो गया!
संयुक्त परिवार कल की बात हो गया!
जरूरत भर साथ के बाद उसी फूलवारी को बियाबान बनाने की परम्परा जागृत हो गयी जिसकी खुश्बू की महक से ही तितलियों ने डेरा डाला दिया था।
इस पर मन्थन सिर्फ तबाही की तिजारत को आमन्त्रण ही देना है! कर्म की खेती भी साहब अब डंकल प्रजाति की हो गयी है!
शुरुआत में चहकती महकती जरुर दिख रही है मगर उसका अन्त काफी दुखदाई है।
कल तक मुस्कराने वाले अपनी कमाई पर इतराने वाले को जब समय के सागर की सुखी तलहटी का आभास होता है तब तक तो सब कुछ खत्म हो चुका होता है।
वे परिंदे पिंजड़ा छोड कर उड़ चुके होते है जिनके लिए जीवन भर अपनों से बेवफाई करते रहे!कर्म की खेती मे कोई हिस्सेदारी नहीं!
यह अपनी कमाई है!
भरपाई भी खुद ही करनी पड़ती है!
साहब महज चार दिन की ज़िन्दगी है कौन अपना है कौन पराया!
जाना तो अकेले हैं!
यहां तो हर कोई बेगाना है!
काहे को वैमनश्यता तराना गुन गुना रहे हो आज हम अकेले जा रहे हैं कल तुम अकेले जावोगे!
साथ कुछ नहीं जायेगा।
यह तो ज़िन्दगी का पड़ाव है महज कुछ दिनों का सबसे लगाव है।
सम्हल जाओ भाई वक्त सबका हिसाब लेता है??
सबका मालिक एक 🕉️ साईं राम!!
जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत