
सम्पादकीय
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
दवा की बोतलों में प्यार भर कर भेजो यार !
लोग बिमारी से नहीं तन्हाई से मरे जा रहे है!!
बदलते हालात ने दुनियां के हर शख्स को जख्मी कर दिया है! हर कोई कराह रहा है! हर कोई अपनों से दुखी हैं! क्या जमाना आ गया है दोस्तों! ज़िन्दगी का फलसफा बदल गया! लोगों का दिल दिमाग बदल गया! हर किसी के दिल में नफ़रत की हुंकार करती दरिया बह रही है! हर जुबान तीखी हो गयी है! शालीनता दूर खड़ी अफसोस कर रही है! इन्सानियत बेहोश है? मानवता मर्माहत है! चाहत आहत हैं!न अपना समझ में आ रहा है न पराया! जिन्दगी के आखरी सफर में कोई नहीं दिखता हम साया! गजब का मंजर है हर आदमी के दिल में खंजर है! मौका मिलते ही अपना काम तमाम कर दे रहा है! जिज्ञासा की जलती बिभिषिका में परोपकार नाम का सफाया हो गया?- अजीब तरह का लोगों का ब्यवहार होता जा रहा है! पुरातन सारी ब्यवस्था यह देश खोता जा रहा है!सौहार्द का समीकरण त्रिया चरित्र के वशीकरण मन्त्र के प्रभाव में जो अभाव पैदा कर रहा है उसकी चपेट में हर परिवार है।घर के मुखिया पर उम्र के आखरी पड़ाव पर लटक रही तलवार है!अब न आचार है न बिचार है न संस्कार है!केवल तिरस्कार है?-
न जाने कौन सी बस्ती में लोग घर बना रहे है न वहां कोई मस्ती है! न चाहत है! न अपनी कोई हस्ती है?
हर कोई बेगाना है! हर कोई बस पैसे का दीवाना है! पैसे की चाहत ने अपनों से दूर कर दिया! सभी को आधुनिकता ने मजबूर कर दिया!जरा सोचिए जनाब वह भी क्या जमाना था! जब घर का मुखिया एक बार जिधर देखता उधर सब कुछ बदल जाता! जिधर चलता राहे आसान हो जाती! समरसता समता कुलांचे भरती? उनके नाम से ही सुशोभित होती थी निवास की धरती!कितना बदल गये लोग! आखिर यह छुआ छूत का कहां से आया रोग! कहने को तरक्की सुदा जमाना है!इसमें आधुनिकता का रोग तेजी से फ़ैल रहा है! सहयोग तो कोई जानता ही नहीं! वियोग की बहसी हवा में दुआ सलाम भी बन्द हो गया! हर कोई स्वक्षन्द हो गया! न कोई डर न दबाव!खत्म हो गया सम्भाव! विकृत होते समाज में पुरातन संस्कृति परम्परा जीवन के मूल आधार ही बदल गये! पाश्चात्य सभ्यता के अन्धड में सब खो गये!इसकी चपेट में हर कोई है! न जाति बची! न धर्म न मज़हब!जिधर देखिए नजारा भी है गजब!—
आजकल फैसन परस्ती फास्ट फूड का जमाना है!अब पुरानी रवायत कहां कोई कुछ भी करे किसी से शिकायत कहां!अब रिश्तों की बुनियाद भी दरक रही है! हर परिवार में कलह कालजयी ब्यवस्था का परिचालन कर रहा है!
एक निश्चित उम्र के पड़ाव पर अपनों का ही निष्कासन कर रहा है!जिनके गोंद में पल बढकर ज़िन्दगी का खुशनुमा पल देखा! जिनके बाजुओं के सहारे खुद के सुखी भविष्य का हल देखा! उन्हीं को आखरी पड़ाव के तरफ बढ़ते देख अकेला छोड़कर चल निकला! वाह रे भाई आयातित रिश्ता फरिस्ता बन गया! जो जीवन भर दर्द सहकर पलकों की छांव में परवरिश दिया बेगाना हो गया! लगातार बृद्धा आश्रमों में संख्या बढ़ रही है! अनाथालयों में कसमकश है! जीवन ही बन गया सर्कस है!जोकर बनी ज़िन्दगी का अन्त इस तरह का होगा लोग सोच भी नहीं पाए थे! यह आनी जानी दुनियां है साहब कुछ समय का पड़ाव है यहां कुछ भी स्थाई नहीं है!सब छोड़कर जाना है! परमधाम ही आखरी ठीकाना है!पतित पावनी की लहरों में एक दिन सभी को समा जाना है।फिर भी मूर्ख मानव अभिमानी बना फिर रहा है! मां बाप की नजरों से गिर रहा है!।बद्दुआओं का भागी बन अन्तिम सफर के मुसाफिरों को अपमानित कर रहा है! आज मुस्करा ले भाई तेरा भी हश्र कल यही होगा!जो बोया वही काटेगा।
तेरे कर्म को कोई नहीं बांटेगा!
सबका मालिक एक ऊं साई राम —
जगदीश सिंह सम्पादक
राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत 🙏🏾🙏🏾