
परमपूज्य गुरुदेव श्री राम शर्मा जी का 2जून महाप्रयाण दिवस
महराजगंज,गायत्री जयंती 2 जून 1990 को गुरुजी ने अपना स्थूल (महाप्रयाण दिवस)शरीर त्याग दिया था”
“मैं रहूं या ना रहूं ये मिशन रहना चाहिए”
ऐतिहासिक पल-
आज से ठीक ३२ वर्ष पूर्व २ जून १९९०, तदनुसार ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष दशमी, गायत्री जयंती, शनिवार। वैसे यह पर्व हमेशा उल्लासपूर्ण वातावरण में मनाया जाता रहा है, किन्तु परम पूज्य गुरुदेव के २७ अप्रैल के शब्द बार बार हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे कि हम चाहते हैं कि इस बार की गायत्री जयन्ती ऐसी मने, कि लगभग दस हजार स्वजनों के बीच जब हम निकलें तो कोई फूल डाल रहा हो, कोई जयघोष लगा रहा हो, तो कोई कुछ कर रहा हो।
प्रातः कालीन प्रार्थना, आरती तथा हवन के पश्चात वन्दनीया माता जी अपने आराध्य के पास कार्यकर्ताओं के लिए दिए जाने वाले सन्देश का मार्गदर्शन लेने पहुंचीं। दोनों की यह दृश्य शरीर से अन्तिम विदाई थी। अपने हृदय को वज्र की भांति कठोर बनाकर वन्दनीया माताजी स्टेज पर पहुंचीं।
लगभग दस हजार कार्यकर्ताओं के बीच वन्दनीया माताजी के रुंधे गले से निकल रहे एक एक शब्द यह एहसास करा रहे थे कि एक युग का पटाक्षेप हो चुका है।
वन्दनीया माता जी के स्टेज पर पहुंचने से पहले ही यह संकेत मिल गया था कि परम वंदनीया माताजी के संक्षिप्त उद्बोधन के बाद आगे के सभी कार्य शीघ्रातिशीघ्र निपटाने हैं।
परम पूज्य गुरुदेव के निर्देशानुसार ही नियमित दिनचर्या को प्रभावित किये बिना प्रणाम तथा भोजन प्रसाद का क्रम निर्बाध गति से चलता रहा। प्रणाम का क्रम समाप्त होने के बाद वन्दनीया माताजी पूज्य गुरुदेव के कक्ष में पहुंचीं।
इसके पूर्व ही जब तक प्रणाम का क्रम चला अपने इष्ट के पार्थिव देह को परम पूज्य गुरुदेव के आवास वाले कक्ष से नवनिर्मित हाल में लाने की व्यवस्था हम लोगों के द्वारा बनाई जा चुकी थी।
अपने आराध्य देव का पार्थिव शरीर देखकर भाव विह्वल होना स्वाभाविक था,
किन्तु परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सौंपे गए दायित्व का स्मरण होते ही उन्होंने स्वयं पर नियंत्रण रख कर हम लोगों को निर्देश दिया कि आगे की व्यवस्था परम पूज्य गुरुदेव के निर्देशानुसार बनाओ और हाँ,
सबसे पहले उन छहों स्थानों पर जहां विशाल ब्रह्मयज्ञ, लक्ष वेदीय दीपयज्ञ का आयोजन ७-८ जून को निर्धारित हैं, वहां सूचना दो कि परम पूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण हो गया है, उनकी इच्छानुसार कोई भी कार्यक्रम निरस्त नहीं होगा।
देश के विभिन्न भागों के कार्यकर्ता हरिद्वार आने के बजाय अपने निकटतम आयोजनों में पहुंचें और जैसा कि गुरुदेव ने २७ अप्रैल को कहा था कि हम इन छहों कार्यक्रमों में पहुंचेंगे, इन छहों कार्यक्रमों में अस्थिकलश के रूप में परम पूज्य गुरुदेव स्वयं पहुंचेंगे।
युगदृष्टा की इस योजना से हम लोग हतप्रभ थे कि यदि कहीं इन छह स्थानों पर इतने विशाल कार्यक्रम न रखे गए होते और परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण की सूचना देश भर में पहुंचती, तो हर कार्यकर्ता अपने आराध्य के अन्तिम दर्शन के लिए हरिद्वार चल पड़ता।
ऐसी स्थिति में स्वल्प अवधि में अपार भीड़ की व्यवस्था बनाना हम लोगों तथा प्रशासन के लिए भी असंभव ही होता।
परम पूज्य गुरुदेव के पार्थिव शरीर को सुसज्जित करके अन्तिम प्रणाम के लिए नव निर्मित हाल में रखा गया।
अन्तिम दर्शन का दृश्य सभी के अन्तःकरणों को विदीर्ण करने वाला था।
पार्थिव शरीर के समीप बैठकर वन्दनीया माताजी की दृढ़ता को निहारते हुए ऐसा लग रहा था कि मानो परम पूज्य गुरुदेव वन्दनीया माताजी के शरीर में ही समाहित हो गए हों।
नव निर्मित हाल से जैसे ही पार्थिव देह को सुसज्जित विमान से नीचे लाया गया, अश्रुपूरित आंखों के साथ युग पुरुष के जयघोषों से समूचा परिकर गूंज उठा।
गुरुवर की इच्छानुसार ही समीपवर्ती क्षेत्रों से उस दिन लगभग दस हजार परिजनों की उपस्थिति रही, जो शान्तिकुंज गेट से प्रखर प्रज्ञा- सजल श्रद्धा तक दोनों ओर खड़े होकर पुष्प वर्षा कर रहे थे।
प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के सामने ही परम वन्दनीया माताजी विराजमान होकर अपने बच्चों को निहारते हुए मानो यह कह रही थीं कि अब तो तुम लोगों को ही अपने गुरु के द्वारा सौंपे गए दायित्व को अपने कंधों पर उठाना है।
परम पूज्य गुरुदेव द्वारा ही निर्माण कराई गईं प्रखर प्रज्ञा, सजल श्रद्धा छतरियों के समीप गुरुदेव के दोनों पुत्रों प्रोफेसर ओम प्रकाश शर्मा तथा श्री मृत्युंजय शर्मा (सतीश भाई साहब) ने पूज्यवर के पार्थिव शरीर को अग्नि को समर्पित कर दिया। इस अग्नि के ताप ने परम पूज्य गुरुदेव को सर्वव्यापी बना दिया।
भावुकतावश कार्यकर्ता परम पूज्य गुरुदेव की अस्थियों एवं भस्म को स्मृति अवशेषों के रूप में स्वयं एकत्रित करने जैसी लूट न मचा दें,
इसके लिए वन्दनीया माताजी द्वारा रख रखाव की जिम्मेदारी हमें सौंपी गई।
सतत दीप प्रज्ज्वलन से लेकर अस्थि विसर्जन तक हमें यह कभी भी नहीं लगा कि हम अपने आराध्य के भस्मावशेष की रक्षा के लिए यहां पर हैं,
हमेशा यह आभास होता रहा कि हमें अपने इष्ट के पास इतने निकट बैठने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
आत्म चिंतन और आत्म समीक्षा के इन क्षणों ने हमारे अंदर अदम्य साहस जगा दिया। परम पूज्य गुरुदेव के आदर्शों की रक्षा के लिए कठिन से कठिन कष्टों को सहने का संकल्प जाग्रत किया।
यह दायित्व हमने जिस निष्ठा से निभाया उसके लिए हम अपने आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली मानते हैं।
इस गुरुतर कार्य के निर्वाह में हमारे अनुज तुल्य श्री श्याम बिहारी दुबे का एक सहयोगी के रूप में महत्वपूर्ण योगदान रहा।
इन स्मृतियों को अपने गुरु भाइयों बहनों के बीच साझा करने का हमारा एक ही उद्देश्य है,
कि उस महान सत्ता के प्रति हमारा विश्वास अडिग रहना चाहिए, परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों में न जाने कितनी बार सुना होगा कि सुख-दुःख, हानि-लाभ,
अंधकार-प्रकाश तथा रात-दिन सभी एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। सदैव दिन ही रहे, रात कभी न हो तो दिन की परिभाषा नहीं की जा सकती है। न जाने कितने महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़े होंगे,
क्या कभी उनकी परीक्षा नहीं ली गई है? हम न जाने कितनी परीक्षाओं से गुजर कर आज गुरुवर के संस्मरण परोसने की स्थिति में आए हैं।
अतः अपने इष्ट पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास बनाए रख कर उनके द्वारा सौंपे गए दायित्वों का निर्वहन कई गुना अधिक शक्ति से करने में संलग्न हो जाना चाहिए और परम पूज्य गुरुदेव को आश्वासन देना चाहिए कि
हम आपके अमृत वचन “सत्य परेशान तो हो सकता है, पर कभी भी पराजित नहीं होता है” पर पूर्ण विश्वास है।