
राम राम🙏 जी
उस समय कि घटना है जब महाराज जी बाबा लक्ष्मण दास के नाम से जाने जाते थे। फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) से 27 किलोमीटर दूरी पर मोहम्मदाबाद रोड में (नीब करौरी गाँव के समीप) महाराज जी की यहाँ पर तपस्थली है जहां स्थित एक गुफा में लगभग 23 वर्षों तक उन्होंने तप किया। इसी स्थान पर बाबा के हाथों द्वारा गोबर और मिट्टी से निर्मित एकमात्र हनुमान जी की मूर्ति है। मान्यता है कि इस के सम्मुख सुंदर कांड, हनुमान चालीसा पढ़ने से आत्मा तृप्त होती है एवं सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं । यहाँ पर एक रेलवे लाइन गुजरती है जिसमें यदा-कदा कुछ समय के लिए ट्रेन आवश्यकता अनुसार रुकती थी। यहाँ से अलमस्त भाव में बाबा जी नित्य गंगा स्नान हेतु फर्रुखाबाद जाते थे। एक दिन की बात है कि वे अपनी ही धुन में मगन होकर बाबा गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो उनकी दृष्टि पटरी पर खड़ी ट्रेन पड़ी और वे मौज में इसमें सवार हो गए। यह उन दिनों की बात है जब अधिकांश रेलवे कर्मचारी या तो ब्रिटिश थे या कम से कम एंग्लो-इंडियन थे। यह फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा था। यात्रा के दौरान टिकट परीक्षक ने देखा कि एक असभ्य, देहाती समान व्यक्ति उच्च वर्ग की सीट पर बैठा है। वह उनके पास पहुंचा और उनसे टिकट मांगा। बाबा जी ने उसकी ओर देखा और उसके प्रश्न पर ध्यान न देते हुए अपनी ही चिंतन-मनन में मगन बाबा ने सिर हिलाया और अपने खाली हाथ फैला दिए। टिकट परीक्षक ने स्थिति को समझा और कार्रवाई करने का निर्णय लिया। तदोपरांत ट्रेन नीब करौरी गाँव के एक छोटे से स्टेशन पर कुछ देर के लिए रुकी तो बाबा को नीचे उतरने का आदेश दिया गया। बाबा ने तुरंत आज्ञा पालन करते हुए अपनी सीट छोड़ दी और गाड़ी से नीचे उतर गये और कुछ कदम दूर एक पेड़ की छाया के नीचे अपना चिमटा गाड़ कर बाबा बैठ गए। कुछ ही मिनट में घंटी बजी, रेलवे गार्ड ने सीटी बजाकर हरी झंडी लहराई, इंजन चालक ने सीटी बजाई और इंजन चालू कर दिया। कुछ नहीं हुआ। इंजन नहीं चला और ट्रेन जहाँ थी वहीं खड़ी रही। गार्ड ने नीचे उतर कर इंजन चालक के पास जाकर पता किया कि क्या गड़बड़ी है। किसी तरह की गड़बड़ी का पता नहीं चल सका। सब कुछ ठीक लग रहा था। इंजन ड्राइवर ने सब प्रकार से जांच कर ली पर हर प्रयास विफल हुआ। निस्संदेह अधिक समय व्यतीत हो जाने पर स्टेशन मास्टर की शकल में चिंता की लकीरे प्रकट होना स्वाभाविक था क्योंकि एक और ट्रेन के आने का समय हो गया था जो लाइन के ऊपर किसी स्टेशन पर रुकी हुई थी। टेलीग्राफिक संदेश आने लगे। 15 मिनट, 20 मिनट और फिर आधा घंटा बीत गया। अकारण ही ऐसी चिंता उत्पन्न हो गयी थी जिसमें कि निरंतर बढ़ोतरी हो रही थी तब इस परिस्थिति में स्टाफ का एक अधीनस्थ सदस्य जो बहुत सीधे सरल स्वभाव का था अपनी हिम्मत जुटा कर स्टेशन मास्टर के पास आया और पेड़ के नीचे बैठे बाबाजी की ओर इशारा करते हुए जोर देकर कहा कि यह सम्पूर्ण स्थिति इन संत के प्रति अनादर दिखाने के कारण है एवं सुझाव दिया कि गतिरोध को समाप्त करने एकमात्र तरीका है कि उनसे संपर्क कर क्षमा-याचना कर वापस उन्हें ट्रेन पर पुनः चढ़ने हेतु आग्रह करें। इसकी जानकारी गार्ड और इंजन चालक को दी गई। पहले तो उन्होंने ऐसा कुछ करने से साफ इनकार कर दिया लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया तो समझ आ गया कि यही एकमात्र यही तर्क बचा है और इसमें विश्वाश करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प अब उनके पास नहीं हैं तब फिर बाबा को मनाने का निर्णय लिया गया। वे आदरपूर्वक बाबा के पास पहुंचे, उन्हें प्रणाम किया, अशिष्टता के लिए क्षमा मांगी, उनसे ट्रेन में चढ़ने हेतु विनम्र अनुरोध के साथ अपनी यात्रा जारी रखने के लिए आमंत्रित किया। बाबा ने एक पल के लिए ऊपर देखा और कहा “ठीक है, चलो। हम चलेंगे, हम चलेंगे” और बाबा ने ट्रेन में चढ़ने से पूर्व अपनी दो शर्तों रखी। पहली शर्त यह कि-रेलवे कंपनी गाँव में एक स्टेशन का निर्माण करे (उस समय ग्रामीणों को निकटतम स्टेशन तक कई मील पैदल चलना पड़ता था), और दूसरी यह कि रेलवे कंपनी भविष्य में साधुओं के साथ अच्छा व्यवहार करे। अधिकारी यह दो शर्तों को अविलंब मान गए तो बाबा ट्रेन में चढ़ने को राजी हुए और फिर मजाक में बोले, “क्या, ट्रेनों को शुरू करना मेरे ऊपर है?” जब तक बाबा ने ट्रेन को आगे बढ़ने का आशीर्वाद नहीं दिया, तब तक ट्रेन चालक आगे नहीं बढ़ी। बाबा ने आशीर्वाद दिया और तुरंत इंजन को झटका लगा और ट्रेन ऐसे चलने लगी जैसे कुछ हुआ ही न हो। इस बीच, वहाँ जमा हुई एक छोटी सी भीड़ ने बाबाजी के इस आँखों देखे इस चमत्कार पर आनन्द की अनुभूति व्यक्त करते हुए जोर-जोर से तालियां बजाईं। इस घटना के बाद से किसी भी रेल अधिकारी ने बाबा जी को किसी भी रेलगाड़ी में उनकी स्वतंत्र आवाजाही में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। और बाबा जहाँ पर से चढ़े थे वहाँ रेलवे विभाग ने एक स्टेशन बनाया जिसका नाम बाबा लक्षमण दास पूरी रखा और नीब करौरी गाँव में ट्रेन को रोकने के कारण ही बाबा नीम करौली के नाम से विश्व विख्यात हुए।