
रमेश चंद्र झा : स्मृति शेष
आखर परिवार, भोजपुरी, हिन्दी आ मैथिली के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, रचनाकार रमेश चंद्र झा जी के पुण्यतिथि प श्रद्धांजलि दे रहल बा।
जयंती – 8 मई 1928
पुण्यतिथि – 7 अप्रैल 1994
रमेश चंद्र झा जी के जन्म 8 मई, 1928 के बिहार के पूर्वी चम्पारण जिला के फुलवरिया(सुगौली) में भइल रहे । इहां के 1942 के आंदोलन में बड़ा बढ-चढ के हिस्सा ले ले रहनी । भोजपुरी, मैथिली आ हिन्दी तीनो भाषा के पत्र-पत्रिकन में इहाँ के रचना लगातार प्रकाशित होत रहे । उपन्यास , जीवनी , बाल-साहित्य , कविता आदि अलग अलग विधा में इहां के लगभग पचास से बेसी किताब आ पत्र पत्रिका प्रकाशित बा । भोजपुरी में इहाँ के लिखल ऐतिहासिक उपन्यास ‘सूरमा सगुन विचारे ना’ अँजोर पत्रिका में धारावाहिक के रुप में प्रकाशित भइल रहे । एह के अलावा अउरी कुल्ह क गो किताबिन में चम्पारण की साहित्य साधना (1958),चम्पारण के साहित्य और साहित्यकार (1967),चम्पारण की साहित्य यात्रा (1988) किताब भी इहां के प्रमुख किताब ह । भोजपुरी के अलग अलग कोर्स के किताबिन में इहां के रचना आ लेख प्रकाशित बा । भोजपुरी के सुप्रसिद्ध नामी सर्वप्रिय इ साहित्यकार, हमनी के भोजपुरिया माटी के 7 अप्रैल 1994 के छोड़ के लमहर यात्रा प निकल गइनी ।
आखर परिवार अपना सुरसिद्ध रचनाकार, कवि आ लेखक के बेर बेर नमन क रहल बा ।
रमेश चंद्र झा जी के लिखल कुछ रचना –
1-
जिनगी के एक लहर बीत गइल
हार गइल घोर अंधकार, किरन जीत गइल।
बदल गइल रंग, आज रंग असमान के,
निखर गइल रूप, रूप साँझ के, बिहान के,
सिहर गइल तार, हर सितार का बितान के,
आग भइल चिनगी से, साध जुगल जिनगी के
बिखर गइल हर सपना, अधरन से गीत गइल।
जिनगी….
बदल गइल परिभाषा आज शूल-फूल के,
रूप आसमान चढ़ल बाग का बबूल के,
परती ना पहिचाने धरती का धूल के,
आर-पार आँगन के, महक उठल चन्दन के,
आपन परतीत गइल, सपना बन मीत गइल।
जिनगी….
निखर उठी रूप नया-माटी का दे हके,
भाग नया जाग उठी-खेत के सरेह के,
धरती पर समदरसी दिया जरी ने हके,
आपन बनके थाती, लहकी मुरझल बाती,
जोत नया जाग रहल, परस नया प्रीत गइल।
जिनगी….
2-
प्रीत जहिया सजोर हो जाई,
भाव मन के विभोर हो जाई!
दर्द के बाँसुरी बजाई के,
बोल बहरी कि सोर हो जाई!
हम सँवारब सनेह से सूरत,
रूप सुगना क ठोर हो जाई!
रात भर नाचि के थकल जिनगी,
जाग जाई त भोर हो जाई!
पाँख आपन पसारि के जईसे
सनचिरैया चकोर हो जाई!
चोट खाई त मोम जइसन मन,
काठ अइसन कठोर हो जाई!
देख के रूप, रूप अनदेखल,
छोट चिनगी धंधोर हो जाई!
रूप का तीर के चुभन कसकी,
दाह दहकी त लोर हो जाई!
के निहोरा करी अन्हरिया के,
आँख झपकी अंजोर हो जाई!
के कहानी सुनी पिरितिया के,
हम सुनाइब त भोर हो जाई!
3-
हिन्दुस्तान जनम धरती हम बासी हिन्दुस्तान के ।
आसमान पर लहरत बा झंडा हमरा बलिदान के ।।
हमरा माथे मुकुट हिमालय, थाती घर संसार के ।
हरदम हहरत हिया जुड़ावे सागर पाँव पखार के ||
देश-देश के लोग निरेखे, आपन आँख निखार के ॥
आज देश के हर पुकार पर बाजी हमरा जान के ।
आसमान पर लहरत बा झंडा हमरा बलिदान के ।।
जहाँ नेह के नदी बहत बा, गली-गली हर गाँव में ।
प्रीत-रीत के बंशी बाजे, कहीं कदम का छाँव में ॥
आँगन में गौरैया नाचे, बिछुवा बान्हे पाँव में ।।
जहाँ किरिनियाँ उठ के पहिले खोले आँख बिहान के ।
आसमान पर लहरत बा, झंडा हमरा बलिदान के ।।
खेतन में सीता उपजेली, जहाँ जनक का देश में ।
लोग जहाँ सोना जइसन गौतम गाँधी का भेष में ।।
आपन कीमत बा हमनी के, चरखा देश-विदेश में ।।
आपन सब कुछ खोके हम, बारब दियरा निरमान के ।।
हिन्दुस्तान जनम धरती हम बासी हिन्दुस्तान के ॥
आसमान पर लहरत बा झंडा हमरा बलिदान के ।।