
. “भगवान् से मानसिक रमण की विशेषता”
चन्द्रमा अमृतमय है, उसमे शान्ति मानो चू रही है। इसी तरह भगवान् में गुण हैं, उनका दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। यह उनके गुणों का प्रभाव है। एक श्रेष्ठ पुरुष होता है, उसके सामने दूसरे आदमी पर उसका प्रभाव पड़ता है। यदि वह सत्यवादी है तो उसके सामने दूसरा आदमी मिथ्या भाषण नहीं कर सकता। एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है उसके सामने दूसरा व्यक्ति हँसी-मजाक नहीं कर सकता। एक व्यक्ति में स्वाभाविक ही चंचलता है, किन्तु स्थिरबुद्धि व्यक्ति के सामने बैठने से उसके मन में स्थिरता आ जाती है। उसके परमाणुओं का प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार सभी प्रकार के गुणों का प्रभाव पास में रहने वालों पर पड़ता है। श्रद्धालुओं के अधिक पड़ता है, बिना श्रद्धावालों के सामान्य पड़ता है। किसी मनुष्य के स्वार्थत्याग का भाव है, उसके व्यवहार से दूसरों पर त्याग का प्रभाव पड़ता है। उतम क्रिया का प्रभाव भी दूसरों पर पड़ता है। कोई भी मनुष्य उतम क्रिया कर रहा है, उसको देखकर दूसरे के मन में भी यह भाव आता है कि मैं भी उतम क्रिया करूँ। ऐसे ही मनुष्य के मन में क्षमा, शान्ति, सन्तोष, दया आदि उतम भावों का सूक्ष्मता से उन पर प्रभाव पड़ता है, जिनसे उनकी भेंट होती है। ह्रदय का भाव नेत्र से, उपदेश, आचरणों से, क्रिया का भी प्रभाव पड़ता है।
यह बात भगवान् में अलौकिक है, अतिशय है। महात्माओं में भी यह बात होती है। किन्तु परमात्मा के समान नहीं ; क्योंकि परमात्मा का विग्रह दिव्य है। स्वभावसिद्ध ही अलौकिक, दिव्य और प्रभावयुक्त है। महात्मा पुरुषों का शरीर पाप-पुण्य से पैदा हुआ है, इसलिये निष्पाप होते हुए भी भगवान् के समान दिव्य नहीं है। उनका भी प्रभाव पड़ता है, परन्तु भगवान् का विशेष प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार नीच प्रकृति वाले दुराचारी मनुष्य का भी बुरा असर पड़ता है, इसलिये यह बात कही है कि हे परमात्मा ! यदि सत्संग न हो तो बुरे आदमियों का संग तो न हो।
जब तक साक्षात परमात्मा की प्राप्ति न हो जाय, तब तक पुस्तकों के आधार पर महात्माओं के बताये अनुसार ही परमात्मा का ध्यान किया जाय। मन से ही सब क्रिया होती है, मन से ही भगवान् के साथ सब प्रकार रमण करें। मनन कहो चाहे क्रीड़ा कहो सब प्रकार सब प्रकार की क्रिया क्रीड़ा ही कही जाती है। मन से ही उनके चरणों का स्पर्श करने से ही शरीर प्रेमोन्मत हो जाय, रोमांच होने लगे। ऐसे ही मन से ही भगवान से वार्तालाप करें। वार्तालाप करते समय मानो भगवान् से ही बात कर रहा हूँ। भगवान् जो कुछ बोल रहे हैं वह मानो मैं सुन रहा हूँ। वहाँ जो कुछ होता है मन से ही होता है। भगवान् की वाणी में अलौकिकता दीखती है। मन से ही मानो भगवान् का दर्शन एवं स्पर्श कर रहा हूँ। सब क्रिया मन से ही हो रही है। इस प्रकार के रमण का फल यह होता है कि भगवान् साक्षात मिल जाते हैं।
‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’- इस प्रकार जो करता है उनको मैं यह बुद्धियोग देता हूँ। जिससे वे मेरे को ही प्राप्त हो जाते हैं। भगवान् के प्राप्त होने के बाद जो कुछ होता है स्वत: ही हो जाता है। उस समय की जितनी बात बतायी जाती है, एकान्त में मन से उस तरह करने से विशेष लाभ होता है। भगवान् में जब श्रद्धा हो जाती है उस समय जब भगवान् की बात कहें तो बहुत प्यारी लगती है। कोई अपना अतिशय प्रेमी कलकता में वास करता है। कोई आदमी कलकता से आये तो उससे पहले उस प्रेमी की बात पूछने की मन में रहती है। इससे मालूम होता है कि इसकी बड़ी भारी प्रीति है। भगवान् का भक्त है, उनसे मिलकर भगवान् की बात पूछना अतिशय प्रेम है। कानों से भगवान् का नाम सुन ले तो सुनकर मुग्ध हो जाय।
राम का उपासक है, रकार जिस वस्तु में है उस को याद करते ही मुग्ध हो जाय। रकार उच्चारण होने से ही मुग्ध हो जाय। अध्यात्मरामायण में मारीच ने रावण को कहा है- राम बड़े बलवान हैं, मुझे उनसे इतना भय लगता है, वे सदैव पास में दीखते हैं। राज, रत्न, रमणी आदि शब्दों के उच्चारण होने से ही मुझे भय लगने लगता है। ऐसे राम से विरोध नहीं करना चाहिये।
राममेव सततं विभावये भीतभीत इव भोगराशिभि:।
राजरत्नरमणीरथादिभि: श्रोत्रयोर्यदि गतं भयं भवेत्॥
उसको भय से भगवान् की स्मृति होती थी। भय से भगवान् का स्मरण करने वाले को भी लाभ ही होता है। किसी से द्वेष है उससे आशंका हो कि वह मुझ पर घात करेगा तो उसको बहुत स्मृति रहती है। हत्या का मामला है। उसे यह मालूम हो कि तू पकड़ा जायगा तो उसे पुलिस आदि की बहुत स्मृति रहे। भय से भी स्मृति होती है, प्रेम से भी होती है। इसी प्रकार भगवान् में प्रेम होने से उनकी स्मृति ह्रदय में बनी रहती है। कहीं भगवान् का चित्र, नाम सामने आ जाय तो विह्वल हो जाय। किसी प्रकार भी भगवत-प्रेम का अंश प्राप्त हो जाय तो विह्वल हो जाय, इसलिये हम लोगों को प्रेमी होना चाहिये।
भगवान् की प्रत्येक क्रिया आकर्षित करने वाली है। जैसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी प्रत्येक क्रिया उनके भक्त गोप-गोपियों को आकर्षित करने वाली थी। भगवान की प्रत्येक क्रिया में आकर्षण शक्ति रहती है। इसका ख्याल करके भगवान् जो लीला करते हैं उसमे चित को लगायें। मन से भगवान् की लीलाओं का अनुभव करें, उनकी लीलाओं को सामने देखें। प्रत्यक्ष की तरह देखें कि वह लीला हो रही है।
भगवान् की सारी क्रियाओं को देखकर उनके भक्त मुग्ध होते थे। यह देखकर, विचार कर हम भी मुग्ध होवें तो मन उन्हें छोड़कर नहीं जा सकता। उनकी मुखारविन्द की ओर देखें कि वे मधुर वाणी से बोल रहे हैं, ऐसा मन-ही-मन में ध्यान रखें कि भगवान का शरीर दिव्य है, अमृतमय है, आनन्दमय है। प्रत्येक अंग में अलौकिक चमक है, अलौकिक रस भरा है, बड़ा ही मधुर है। सारी इन्द्रियों को प्रिय लगे ऐसा दिव्य मधुर है। ऐसी माधुर्य मूर्ति को याद करके मुग्ध होवे। जैसे बर्फ शीतल होती है, वह बर्फ शीत की मूर्ति है, इसी तरह भगवान् रस की मूर्ति हैं, आनन्द की मूर्ति हैं, प्रेम की मूर्ति हैं। बर्फ छूने से ठण्ड की प्रतीति होती है, इसी तरह भगवान् को छूने से आनन्द प्रतीत होता है। स्त्री के शास्त्रों में आठ प्रकार के मैथुन, रमण क्रिया बतलायी गयी है। उसी प्रकार प्रभु के साथ में जो मिलन है, उसमे आठवीं क्रिया बाद दे दो। सात प्रकार की बात प्रभु से मन से करें। यानी परमात्मा के साथ ऐसे ही करें, वह आठ बातें काम का उद्दीपन करने वाली हैं।
उनकी वाणी मैं सुन रहा हूँ, वे बोल रहे हैं। भगवान् के साथ एकान्तवास है। वे मुझे देख रहे हैं, मैं उन्हें देख रहा हूँ। जैसे मीराबाई भगवान् को कमरे में देखा करती। इसी प्रकार भगवान् के शरीर को देख रहा हूँ। नेत्र से नेत्र मिला रहा हूँ। उससे उनके द्वारा एक अलौकिक शक्ति मेरे में प्रवेश कर रही है। उनके सारे गुण प्रवेश कर रहे हैं। नेत्रों के द्वारा दर्शन हो रहा है। सारे अंगों के दर्शन हो रहे हैं। यह दर्शनों से रमण हुआ। दर्शन, श्रवण, एकान्तवास, चौथा स्पर्श- भगवान् के चरणों को छूने से प्रेम की, आनन्द की लहरें उठने लग जायँ। यह स्पर्श के द्वारा रसपान है।
अन्त:करण में, मन में भगवान् का प्रेमस्वरूप इस प्रकार प्रविष्ट हो रहा है। भगवान् मानो गड़ गये, अब किसी तरह हट नहीं सकते। सारी बातें मन से ही हो रही हैं, अब भगवान् छिप गये। उनके विरह में व्याकुल होकर मानो प्रार्थना कर रहा हूँ कि आप दर्शन क्यों नहीं देते ? आपके वियोग में मैं कैसे रह सकूँगा ? इस प्रकार वियोग से भावित होकर संयोग के लिये लालायित होना यह उनका स्मरण है। फिर भगवान् से प्रेम की बातें करनी हैं। वह परस्पर में गुह्यभाषण है छिपी हुई गोपनीय बातें जो भगवान् के साथ ही हो सकती हैं। वार्तालाप में दोनों परस्पर बोलते हैं। ऐसी गोपनीय है, संसार से छिपी हुई है। यह गुह्यभाषण है। इससे चित में जो प्रसन्नता, शान्ति मिलती है उसी का नाम संतोष है। ऐसा करने से शीघ्र ही प्रेम का प्रादुर्भाव होकर भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में वहीँ भगवान् प्रकट हो जाते हैं।
भगवान् का दिव्य विग्रह है उससे स्वाभाविक ही मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। भगवान् की लीला का प्रभाव अच्छा पड़ता है। उनके नेत्रों की छटा का अच्छा प्रभाव पड़ता है। भगवान् की वाणी, उपदेश, आदेश का अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार के भाव से मनुष्य मुग्ध हो जाता है, उसको बड़ी भारी शान्ति मिलती है। उनके गुणों का प्रभाव पड़ता है। शरीर, नेत्र, वाणी, क्रिया, भाव इन पाँच चीजों का प्रभाव पड़ता है। इसी तरह पाँच बातें महात्माओं के विषय में है। फिर यह बात आती है कि इस प्रकार का प्रभाव प्रत्यक्ष होने पर अधिक पड़ता है या मानसिक का। यदि कहो मानसिक का पड़ता है तो मिलन की क्या आवश्यकता है ? यदि प्रत्यक्ष का पड़ता है तो मानसिक की इतनी महिमा क्यों है ?
दोनों ही अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं। दोनों बातें शास्त्रों में आती हैं। प्रत्यक्ष तो प्रत्यक्ष ही है। भगवान् इस समय नहीं दीख रहे हैं, इसलिये मानसिक उतम है ही। यदि कहीं प्रत्यक्ष से मानसिक उतम बताया जाता है, उसका तात्पर्य यह है कि मूर्ति की पूजा से मानसिक को विशेष बताया गया है। मूर्ति की दृष्टि से विशेष बताया गया है कि साक्षात परमात्मा की अपेक्षा। जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं है, उसके लिये मानसिक की प्रधानता है। जो प्रत्यक्ष है उसके लिये मानसिक की प्रधानता नहीं है। फिर कहा जाय कि कोई महात्मा पुरुष हैं, उनके चरण-स्पर्श, उनके चरणोदक में मन की विशेषता बतायी है। उसमें दूसरा कारण है। प्रत्यक्ष की क्रिया में दम्भ आ जाता है, मानसिक में वह गुंजाइश नहीं है, इसलिये विशेषता बतायी है। वह मानसिक श्रद्धा से ही होता है। अधिकांश में सब अच्छे पुरुष मिलते भी नहीं हैं, इसलिये मानसिक की विशेषता बतायी है।
भगवान् का वियोग संयोग की अपेक्षा अधिक महत्व का बताया जाता है, जैसे गोपियाँ तथा भरत जी। एक संयोग का आनन्द होता है एक विरह-व्याकुलता का। विरह व्याकुलता में भगवान् की स्मृति अधिक होती है। संयोग का आनन्द दूसरे प्रकार का आनन्द है। भगवान् मिलते नहीं, उस समय भगवान् की विरह व्याकुलता है, उस समय आनन्द-ही-आनन्द है। भगवान् आतुरता, श्रद्धा, प्रेम बढाने के लिये ही विरह देते हैं। भगवान् ने यह बात दिखायी है कि दूर होने पर जितना अधिक प्रेम होता है, निकट रहने पर इतना नहीं रहता। इसलिये ईश्वर और महात्मा श्रद्धा-प्रेम बढ़ाने के लिये ही दूर रखते हैं। दूर रखा जाय इससे प्रेम घटता नहीं, बाध्य होकर रहना पड़ता है। उसमे श्रद्धा-प्रेम घटता नहीं। जो अपनी इच्छा से दूर रहता है, उसमे श्रद्धा-प्रेम घटता है, किन्तु दूर रखा जाता है, वह नहीं रहना चाहता, उसमे प्रेम घटता नहीं। भरतजी रामजी की इच्छा से दूर रहते थे, उनकी प्रीति बढ़ती ही गयी, यदि अपनी इच्छा से दूर रहते तो प्रीति नहीं बढ़ती। गोपियाँ अपनी इच्छी से दूर नहीं रहती थीं, अपितु भगवान् की इच्छा से दूर रहती थीं, इसलिये आज भी उनकी विरह-व्याकुलता की महिमा गायी जाती है। दूर रहना जिसे भारी नहीं मालूम पड़ता, उस वियोग की महिमा नहीं है। हम लोग सब दूर रहते ही हैं, उसकी क्या महिमा है, किन्तु भगवान् के द्वारा हम दूर रखे जायँ, उसकी ही महिमा है।
सीताजी रामजी से अलग नहीं रहना चाहती थीं, रावण उठाकर ले गया, उस समय उनकी विरह-व्याकुलता अलौकिक थी। इसी प्रकार बाध्य होकर दूर रहना पड़े, उसमे विरह-व्याकुलता होने से स्मृति अधिक होती है।
यही बात हम लोगों को अपने ऊपर घटानी चाहिये। यह विरह-व्याकुलता का आनन्द उनको ही होता है, जिनको संयोग नहीं है। मछली जल के लिये तड़पती है, तड़प-तड़पकर मर जाती है। इस प्रकार की भगवान् के लिये जो वेदना है, उसमे भी भगवान् के लिये रसास्वाद है। मछली का इतना ही उदाहरण लिया जाता है कि उससे वियोग में रहा नहीं जाता। उसमें उसे आनन्द नहीं मिलता, किन्तु यहाँ तो भगवान् के विरह में आनन्द, शान्ति मिलती है। भगवान् की स्मृति अधिक होती है। वह यही चाहता है कि ऐसा प्रेम सर्वदा बना रहे। यह गुण जल में नहीं है, भगवान् में है। भगवान् के लिये सिसक-सिसककर मरने में आनन्द है। भगवान् अपने लिये मरने भी नहीं देते। जल में यह गुण-प्रभाव थोड़े ही है। भगवान् दयालु हैं। जल मछली का उपकार नहीं कर सकता। भगवान् अपने भक्त को विरह-व्याकुलता मे मरने नही देते। ऐसी परिस्थिति पैदा कर देते हैं, फिर प्रकट हो जाते हैं। इसके लिये संसार में कोई उदाहरण है ही नहीं। जैसे प्यासे को जल मिल जाय यह भी उदाहरण नहीं लगता, किन्तु संसार का उदाहरण ही दिया जाता है। भूखे मरते हुए आदमी को भोजन मिलने पर जितना आनन्द होता है। इससे भी अधिक आनन्द उसे होता है। भगवान् के गुणों का वर्णन कोई कर ही नहीं सकता। जब शेष-महेश भी नहीं कर सकते, फिर मनुष्य की क्या ताकत है। किन्तु जितनी चर्चा हो उतम ही है, इसलिये कही जाती है। भगवान् को विषय बनाकर समय बिताया जाय तो बहुत ही उत्तम है।
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“जय जय श्री सीता राम*
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