*सम्पादकीय*
✍️जगदीश सिंह सम्पादक✍️
*मेरी पलकों का अब नींद से कोई ताल्लुक नहीं है*!
*मेरा कौन है सोचने में रात गुजर जाती है*!
वक्त का खेल भी गजब का होता है साहब कभी नींद आंखों से जाती नहीं थी आज तमाम कोशिशों के बावजूद यादों के कारवां के झंझावाती थपेड़ों में उलझ कर करीबआती नहीं!कभी हसीन ख्वाबों की तरंगित लडी में भविष्य की हर कड़ी खुशगवार करने के लिए मशक्कत के पैमाने को स्वीकार कर दिन रात कड़ी मेहनत के बाद उम्र का वह हिस्सा जो उमंगों के तरंगों में भविष्य के निर्माण के लिए ख्वाब देखा करता था याद आती जब वह घड़ी तब मन मसोस कर रह जाता!खुद का दिल ही खुद को कहता है वाह रे मुसाफिर तुम्हें मालूम है यहां पर मतलब परस्तो की बस्ती है! यहां स्वार्थ की बाजार में चाहत की हर चीज सस्ती है!महज चन्द दिनों का बसेरा है!यहां हर कोई लुटेरा है!फिर भी अपने मूल को भूलकर समूल का नाश कर लिया! क्या मिला- सारा जीवन उन अपनों के लिए दर्द सहता रहा मन की चाहत को आहत कर सुख भविष्य की कहानी गढ़ता रहा!और अब जब आखरी सफर के विरान राहों में सहयोग का समय आया तो बेगाना बन गये! कोई अहमियत नहीं रही! उन्हीं लोगों के बीच जिनके लिए अपना सुख त्याग कर मरता रहा बोझ बन गये!अवतरण से लेकर आखरी सफर के सुनसान राहों में अकेले चलने तक के बीच के तारतम्य को जब एक कड़ी में पीरोते है तब जो यादों का कारवां बनता है वह ज़िन्दगी के अविरल प्रवाह का गवाह बन जाता है।विधाता के कायनाती ब्यवस्था में आस्था का शानिध्य पाकर पारलौकिकता से आच्छादित पारब्रह्म परमेश्वर की नसीहत को भूल जाना ही इस मृत्यू लोक का शास्वत सत्य है! उसपर से पर्दा तब उठता है जब आत्मा का परमात्मा से मिलन की घंटी बज जाती है! मगर तब तक तो सब कुछ खत्म हो चुका होता है!अपने पराए हो जाते! अपनी शरीर भी तकदीर के सहारे हो जाती! इन्द्रियों का विकेंद्रीकरण हो जाता,मन के आंगन में श्रद्धा सद्भाव लगाव का विलोपन हो जात, राग द्वेश का समावेश हर घर में स्थाईत्व पाने लग जाता है,फिर रिश्तो के बाजार में सम्बन्धो की तिजारत खुलेयाम दिखने लगती है,उसके बाद जो नजर आता है वह दर्द भरा सैलाब के आने का पुख्ता संकेत होता है।मूढ़ मानव आखरी सफर तक पहुंचने तक माया के महाजाल में उलझ कर अपने पराए की दहकती दरिया के संगम मे डुबकी लगाता रहता है! कितनी बड़ी विडम्बना हर रोज अपने प्रिय का सामने ही महाप्रयाण करते देखता है फिर भी उसको परागमन के पारलौकिक ब्यवस्था का भान नहीं होता है!कुछ भी अपना नहीं इसका ज्ञान नहीं होता है!संकल्पित जीवन के आखरी पहर में उन अपनों की पहचान होती है जिनके लिए सारी उम्र गंवा दिया!मिला बस इतना की रात की नींद पराई हो गयी! साथी सिर्फ तन्हाई रह गयी!चौथे पन की ढलती दोपहरी जब शाम का आभास कराने लगती है तब मन के भीतर जो बेचैनी पैदा होती है उसका आभास कर आत्मा रोती है! दिल पश्चाताप करता है कि इस दुनियां में कोई नहीं अपना है।यह जीवन ब्यर्थ बीत गया! बदलते परिवेश में अश्कों से भीगे चेहरो पर जो घाव दिखता है वह लगाव की मरमस्पर्सी कहानी का विकृत रुपान्तरण होता है।हर कोई अपनों की चाहत में परेशान हैं! पर अपनों की परख करनी हो तोएक बार बृद्धा आश्रम या अनाथालय में जरूर जाएं! हकीकत भरा मंजर आप के सामने दिखने लगेगा। आत्मा कराहने लगेगी घृणा का सैलाब चल पड़ेगा, साठ तक गृहस्थी का पाठ पढ़ लिजीए फिर अपना रास्ता खुद बदल लिजीए वर्ना जीवन की गाड़ी बिना पटरी होकर जब दुर्घटना ग्रस्त होगी उस समय कोई साथी नहीं बनेगा!सोचिए समझिए फिर फैसला किजीए कौन अपना है कौन पराया!सबका मालिक एक 🕉️ साईंराम 🙏🏿🙏🏿-_———+
जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत