
सम्पादकीय……………..
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
कोई खुशियों की चाह में रोया कोई दुखों की पनाह में रोया!!
अजीब सिल सिला है ज़िन्दगी का कोई भरोसे के लिए रोया
कोई भरोसा करके रोया!!
अजीब ज़िन्दगी की दास्तां है! कभी वास्ता पर वास्ता है!कभी सब कुछ ला वास्ता है!गजब का मंजर देखने को मिल रहा है।आज फेसबुक देख रहा था तभी नजर वृद्धा आश्रम में अपनों को देखने के लिए तरसती स्नेहिल आंखों से अश्को की बेतरतीब लड़ियों से डूबे मायूस चेहरों पर नजर पड़ गयी दिल झन झना उठा आत्मा कराहने लगी, मन विचलित हो गया!
अपनों की रुसवाई में तन्हाई का जीवन काट रहे वे लोग जो अपने सन्तानों की खुशी के लिए सारा जीवन कड़ी मशक्कत करते रहे अपना सारा सुख सन्तान की झोली में डालकर उम्मीदों के पालने पर झूल रहे थे की आखरी सफर में मंजिल तक पहुंचाने का सहारा यही तो होगे!
मगर सारा ख्वाब धाराशाई हो गया!
जब अपना ही खून उम्र की दोपहरी में लड़खड़ाती ज़िन्दगी का तमाशाई हो गया!
जब जरूरत थी अपनों के सहारा की तो बेचारा बनाकर वृद्धा आश्रम में डालकर किनारा कर लिया!
जिनके लिए अपने कभी बोझ नहीं थे!
वहीं अपने आखरी समय में बोझ समझने लगे!
खुद का खून पसीने से बनाए आशियाने से भी बेदखल कर दिया!
हकीकत के धरातल पर विकृत होते समाज की सच्चाई से लोगों की अब जगह हसाईं भी नहीं हो रही है क्यों की अब यह मामला विरल नहीं घर घर की कहानी बन गया है।
उच्च वर्गीय परिवारो से यह प्रचलन शुरू होकर अब निम्न वर्गीय परिवारो तक में विषमता के बीज का पौधारोपण कर रहा है।
शायद ही कोई परिवार हो जिसमें इस तरह के किरदार निभाने वाले न हो!
हर तरफ अजीब तरह का माहौल जहां देखो वहीं मतलबी कोलाहल है।
जरूरत भर साथ के बाद अपवाद बन जाना नियति में शामिल हो गया है।
कितनी बड़ी विडम्बना है !
आज कोई नहीं अपना है!
हर पल टूट रहा उम्मीदों का सपना है।
संघर्षों की विरासत सम्हालने वाले आज तन्हाई के बेताज बादशाह बन अथाह दर्दों के समन्दर में डूबती कश्ती के मुसाफिर बन गये है!
वक्त की आधी बर्बादी का कहर ढा रही है!
हर लम्हा झंझावातों के बीच साहिल पर लगर डालने का लगातार प्रयास कर रहा है मगर नहीं साहब बेसहारा बिना पतवार की मझधार में हिचकोले खाती ज़िन्दगी की सफ़ीना कहीं ना कहीं डूबकर अपने अस्तित्व को मिटा देने को मजबूर है!
परिवेश बदला लोगों का मिजाज भी बदल गया!
अब ना कोई सगा सम्बन्धी है!
न कोई अपना है!
जरूरत भर ट्रेन के मुसाफिर के तरह साथ फिर अपनी राहे अपनी मंजिल!
सम्हल कर चल ऐ मुसाफिर !चाहत की बस्ती में मतलब परस्ती की दूकान सजी है!
जहां धोखा फरेब मुफ्त बिक रहा है।
आने वाला समय विकृत समाज के आगमन का संकेत दे रहा है!
जहां सम्बन्धों का खुलेआम तिजारत होगा हर घर में हर रोज महाभारत होगा। ——??
सबका मालिक एक – ऊं साईं राम
जगदीश सिंह सम्पादक मऊ क्रांति न्यूज
राष्ट्रीय अध्यक्ष – राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत