चम्बल के बिहड़ो के बीच बसे इटावा जिले के एक छोटे से गांव में मेरा जन्म हुआ।
परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न था।
पूरा क्षेत्र चम्बल के डाकूओं के लिए विश्व में प्रसिद्ध था।
उसे समय की फिल्में चंबल के डाकुओं के नाम से बनती थी किसी फिल्म की शूटिंग तब तक पूरी नहीं होती थी जब तक चंबल का क्षेत्र या चंबल का बीहड़ की शूटिंग उसमें शामिल न हो विकास के साथ दस्यु समस्या समाप्त हो गयी ।
और गांव के अनेकों युवक बाहर शिक्षा के लिए जाकर पुलिस में अधिकारी बन कर क्षेत्र के ऊपर लगे डकैतों के धब्बों को साफ कर सके।
हमको भी उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद( प्रयागराज) के लिए बिस्तर बांध कर तूफान एक्सप्रेस में बैठा दिया गया।
और फिर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए होने वाले कुरुक्षेत्र के मैदान में कूद पड़ा सफलता असफलताओं के दौर चले और फिर यहां की मंडी में मैंने भी नींदें बेच कर सपने खरीदे और फिर सफलता के महल तामीर करने की जुगत में महारत हासिल की संघर्षों की लम्बी कतार पार कर पुलिस सेवा में आया पर कभी भी अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि को भूल नहीं सका।
आज भी सर्दी शुरू होते ही दानेदार घी में चुपरी मक्का की रोटी , हींग जीरा का छौंक लगा हरे चने का साग तथा उसके साथ सिरका में डुबाया गया प्याज व सौंठ के साथ तिल मिलाकर तैयार किया गया गुड़ एक अलग सुखद अनुभूति देता है कभी आप सभी भी सर्दियों में बाटी चोखा व पनीर कोफ्ते के स्थान पर इटावा के इस भोजन का स्वाद चखे।

