एक रिश्ता… जिसने समाज को आईना दिखा दिया,
चाचा और भतीजे का रिश्ता—जो मिसाल बन गया.
गोपालगंज जिले के कुचायकोट विधानसभा से छह बार विधायक रहे
अमरेंद्र पांडे उर्फ़ पप्पू पांडे जी,
जो चुनाव के दिनों में पूरे क्षेत्र के मार्गदर्शक माने जाते हैं।
हजारों लोगों की उम्मीदें,
राजनीतिक दायित्व,
वोटिंग का दिन…
सब कुछ उनके कंधों पर था।
लेकिन उसी दिन…
06 नवंबर—बिहार में वोटिंग चल रही थी,
मतदान का समय भी पूरा नहीं हुआ था,
बूथों पर चहल-पहल थी,
हर नेता और कार्यकर्ता अपनी-अपनी जिम्मेदारियों में दौड़ रहा था…
उसी बीच एक खबर बिजली की तरह गिरी—
भतीजे मुकेश पांडेय जी को अचानक ब्रेन हैमरेज हो गया।
राजनीति की दुनिया में वोटिंग का दिन ‘युद्ध जैसा’ माना जाता है।
लेकिन यहाँ सत्ता और राजनीति की दौड़ के सामने
एक चाचा का दिल खड़ा था।
दायित्व वहीं के वहीं… पर दिल ने रास्ता बदल दिया
जहाँ किसी और के लिए यह समय वोट संभालने,
लोगों से संपर्क बढ़ाने,
स्थिति पर नियंत्रण रखने का था…
वहीं अमरेंद्र पांडेय जी
एक पल में सब छोड़कर
अपने भतीजे को लेकर गोरखपुर के इमरजेंसी वार्ड पहुँचे।
उधर मतदान चल रहा था—
इधर अस्पताल के कॉरिडोरों में बेचैनी।
उधर लोग वोट दे रहे थे—
इधर एक चाचा अपने भतीजे का हाथ पकड़े
ईश्वर से दुआ माँग रहा था।
ऑपरेशन तुरंत हुआ।
घंटों की कठिन जद्दोजहद के बाद
डॉक्टरों ने कहा—
“ऑपरेशन सफल हो गया है।”
वह पल सिर्फ एक डॉक्टर की घोषणा नहीं थी,
बल्कि एक रिश्ते की जीत थी—
एक चाचा के समर्पण की जीत।
और फिर… एक और बड़ी जिम्मेदारी
ऑपरेशन के बाद भी खतरा पूरी तरह टला नहीं था।
बेहतर इलाज की ज़रूरत थी।
इसलिए चार दिन पहले
अमरेंद्र पांडेय जी स्वयं
उन्हें मेदांता, गुड़गांव लेकर पहुँचे—
सबसे बेहतर सुविधा,
सबसे विशेषज्ञ डॉक्टर,
सबसे सुरक्षित हाथों में इलाज कराने की इच्छा के साथ।
आज भी वे वहीं बैठे हैं—
राजनीतिक हलचलों, मीटिंगों,
सत्ता-समीकरणों,
हर अवसर को पीछे छोड़कर…
सिर्फ एक संकल्प के साथ—
“भतीजे को ठीक करके ही घर लौटूँगा।”
यह कोई भाषण नहीं,
कोई मंच पर कहा गया वादा नहीं,
यह एक रिश्ते की गहराई से निकला
सच्चा संकल्प है।
आज का समाज… और यह प्रेरक उदाहरण
हम ऐसे समय में जी रहे हैं
जहाँ लोग छोटी-छोटी बातों से रिश्ते तोड़ देते हैं।
भाई-भाई के बीच दूरी,
बाप-बेटे के बीच संवादहीनता,
परिवार सिर्फ नाम का रह जाता है।
लेकिन अमरेंद्र पांडेय जी का यह व्यवहार
एक चेतावनी भी है,
एक आशा भी—
चेतावनी कि यदि हम रिश्ते खो देंगे
तो जीवन की कोई भी उपलब्धि हमें खुश नहीं कर पाएगी।
आशा कि
अगर एक इंसान अपने दायित्व, समय, पद—
सब कुछ किनारे रखकर रिश्तों को चुन सकता है,
तो समाज अभी भी प्रेम और करुणा से भरा है।
यह घटना हमें क्या सिखाती है
राजनीति, प्रतिष्ठा, पद, पैसा—
सब बाद में है।
पहले परिवार है।
पहले इंसानियत है।
पहले रिश्ते हैं।
हमें खुद से पूछना चाहिए—
क्या हम अपने लोगों की कद्र कर रहे हैं?
क्या हम किसी के कठिन समय में उसके साथ खड़े हो पाते हैं?
क्या हमने भी कभी इंसानियत को दायित्वों से ऊपर रखा है?
यदि नहीं,
तो यह कहानी हमें रुककर सोचने पर मजबूर करती है।
क्योंकि अंत में…
सत्ता बदलती रहती है।
जिम्मेदारियाँ बदलती रहती हैं।
लोग बदल जाते हैं।
लेकिन जो रिश्ते
अपने प्रेम की गवाही देते हैं…
वे इतिहास बन जाते हैं।
ईश्वर से प्रार्थना है कि
मुकेश पांडेय जी जल्द पूर्ण स्वस्थ हों।
और समाज इस घटना से यह सीख ले—
कि रिश्तों को निभाना ही
मानवता का सबसे बड़ा धर्म है।
निवेदक
सुजीत बरनवाल
एच डी पब्लिक स्कूल
तिवारी खरेया

