चोट्टे का दिवस बना दिया गया शिक्षक दिवस
“सभी मित्रों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं”
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लेकिन अफसोस – ये दिन हम ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन पर मनाते हैं जो शिक्षक के नाम पर कलंक है,
जी हाँ सही सुना #सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षक के नाम पर कलंक हैं – वैसे ही जैसे नेहरू #बालदिवस के लिए कंलक हैं।
इनके बहुत सारे कारनामे हैं लेकिन एक झूठ का – जाल बुनकर – गांधी की तरह ही – इनको भी -समाज मे “महान व्यक्ति” स्थापित कर दिया गया है।
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इनका सबसे घिनौना काम की इन्होंने अपने ही विद्यार्थी की लिखी पुस्तक अपने नाम से प्रकाशित करवाई थी छात्र #जदुनाथ सिन्हा ने जब अपनी थीसिस जमा की तो चैकिंग के लिए प्रोफेसर राधाकृष्णन के पास आई और इन्होंने उसको अपने पास ही रख लिया,
तथा 2 साल बाद इंग्लैंड से हूबहू अपने नाम से #इंडियन_फिलॉसफी नाम देकर छपवा दिया जिसके लिए इनको बहुत वाहवाही प्रशंसा और शौहरत मिली और….
जदुनाथ ने जब कोर्ट में केस किया तो – उस गरीब को डरा धमका के चुप करवा दिया। क्योकि कोंग्रसी – बहुत अच्छी तरह से जानते है लोगन को कैसे दबाया जाता ..
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दूसरा घिनौना काम था इनका की जब ये 1952 में रूस में राजदूत थे तो इन्होंने नेताजी बोस से मुलाकात की थी और नेहरू से रिहाई की बात की लेकिन नेहरू ने चुप रहने को कहा और ये चुप हो गए बदले में 1952 में ही भारत बुलाकर उपराष्ट्रपति का पद मिल गया।
बात यही खत्म न हुई 1954 में इनको #भारतरत्न भी दिया गया – बात यँहा रुकने वाली कहाँ थी क्योंकि नेहरू की मजबूरी बन गयी थी इनको खुश रखना क्योंकि नेहरू जानते थे देश नेताजी से कितना प्यार करता है अगर देश को पता चल गया नेताजी जिंदा हैं रूस की जेल में – तो देश में भूचाल आ जायेगा लोग नेताजी को छुड़ाने के लिए जी जान लगा देंगे।
बात यहाँ खत्म न हुई इनको 1962 में राष्ट्रपति का पद भी मिला और इस महत्वकाँक्षी धूर्त व्यक्ति ने राष्ट्रपति बनते ही 1962 में अपने नाम से अपने ही जन्मदिन को #शिक्षकदिवस घोषित कर दिया।
इनकी एक और महानता ये भी रही कि जब 1931 में अंग्रेज हमारे महान क्रान्तिकारी भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद को फांसी की सजा देकर मार रहे थे ताकि स्वतंत्रता संग्राम की दबा दिया जाए,
तो दूसरी ओर राधाकृष्णन को “सर” की उपाधि से नवाजा गया था और उसी समय – पता नहीं किस बेशर्मी से इन्होंने अंग्रेजों द्वारा दी “सर” की उपाधि स्वीकार भी की थी।
“राष्ट्रीय आंदोलनों” में तो यह व्यक्ति पूरी तरह से नदारद था ही। क्योकि अंग्रेजों का “ख़ास पिठ्ठू” जो था।
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1892 में वीरभूम जिले में जन्मे “जदुनाथ सिन्हा” का देहांत 1979 में हुआ।
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(इसके आगे की जानकारी ख्यातिलब्ध ज्यौतिषज्ञ, इतिहासज्ञ एवं पूर्व आईपीएस प्रशासनिक उच्चाधिकारी श्री अरुण उपाध्याय जी ने दी है)
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सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने अपनी -“जन्म तिथि” को “गुरु दिवस” मनाने के लिये अपने द्वारा “व्याख्याकृत” गीता की भूमिका में लिखा कि इसके लेखक का पता नहीं है तथा किसी “काल्पनिक व्यास” के नाम से १५०० वर्षों में लोगों ने ७०० श्लोक जोड़ दिये हैं।
आज भी किसी भी विश्वविद्यालय में गीता का श्लोक उद्धृत करने पर लोग इसी आधार पर विरोध करते हैं और गालियां देने लगते हैं।
और भी कई बातें हैं।
राधाकृष्णन ने राष्ट्रपति बनते ही “तिरुपति संस्कृत विद्यापीठ” से वेदों का “प्रकाशन” बन्द करवा दिया।
वहां के पं. बेल्लिकोठ रामचन्द्र शर्मा कौथुमी संहिता की व्याख्या प्रकाशित कर रहे थे और हार्वर्ड विश्वविद्यालय को १ करोड़ रुपये देने पर भी नहीं बेचा। कहा कि वेद बिक्री की चीज नहीं है।
इस अपराध में उनको तुरन्त नौकरी से निकाला गया तथा प्रेस में छप रही पुस्तक को वापस ले कर हार्वर्ड को बेच दिया।
योग्य सम्पादक के अभाव में अभी तक वहां से ४ खण्डों में केवल २ ही प्रकाशित हो पाये हैं।
“काशी हिन्दू विश्वविद्यालय” में भी मूल संस्कृत जानने वालों को झूठे बहाने बना कर निकाला तथा “नेपाल संस्कृत ग्रन्थावली” का प्रकाशन तुरन्त बन्द करवाया यद्यपि उसका “खर्च” नेपाल राजा दे रहे थे।
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“ज्योतिष विभाग” के अध्यक्ष “श्री रामव्यास पाण्डेय” पर आरोप लगाया कि उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे अयोग्य व्यक्ति को केवल अपना सम्बन्धी होने के कारण उनको प्राध्यापक बनवा दिया। अधिकांश लोग हजारी प्रसाद द्विवेदी को ही जानते हैं।
“रामव्यास पाण्डेय” की कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं होने दी। उनको नौकरी से हटाने के लिये २ अध्यादेश “इलाहाबाद उच्च न्यायालय” ने रद्द किये तो तीसरा अद्यादेश निकला जो विख्यात काला कानून जैसा था।
उसमें लिखा था कि प्राचीन पद्धति के शिक्षकों (संस्कृत जानने वाले) को जैसे ही वो बीमार हों या भलाई के लिये मर जाय तो नौकरी से निकाल दिया जाय।
भारत के मुख्य न्यायाधीश “हिदायतुल्ला” ने पूछा था कि :—
“रामव्यास पाण्डेय” के बीमार होने या मरने से किसका क्या भला होगा और इसे निरस्त करते हुए कहा कि -:– किसी भी शिक्षित व्यक्ति ने ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया है।
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मैं जिस “जदुनाथ सिन्हा” की बात कर रहा हूँ वो कोई गुमनाम लड़का नहीं है।
वे प्रोफेसर जदुनाथ सिन्हा हैं। जो अनेकों पदों पर रहे और उनका देहांत 1979 में हुआ। इसी लेख में नीच सम्पूर्ण विवरण दिया हुआ है – ये तो कोई – सदियों पुरानी या बहुत पुरानी बात नही है।
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प्रोफेसर जदुनाथ सिन्हा ने “शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य” के – वेदांत दर्शन, यौगिक मनोविज्ञान, संस्कृति एवं तर्कशास्त्र, एवं शाक्त तथा शैव तंत्रशास्त्र पर चालीस से अधिक पुस्तकें लिखी थीं।
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उन्होंने कोर्ट में यह सिद्ध कर दिया था कि राधाकृष्णन् की थ्योरी उनके पूर्वलिखित शोध से चोरी करके लिखी गयी थी और उसके बदले उन्होंने आज से 90 साल पहले क्रमशः दो शोधपत्रों की चोरी के लिए भारतीय दर्शन के बदले बीस हज़ार एवं अद्वैत तथा द्वैत वेदान्त के बदले एक लाख रुपयों का दावा भी किया था।
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राधाकृष्णन् जब यह केस हारने की कगार पर थे तो उन्होंने “श्यामाप्रसाद मुखर्जी” के पिता जी, जो उस समय सम्बंधित विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति थे, उनकी पैरवी लगाकर बड़ी मुश्किल से ये मामला दबाया था।
सिन्हा जी अद्भुत मेधा के धनी थे, इसीलिए कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें उनकी शिक्षा पूर्ण होने से पहले ही “सहायक प्रोफेसर” बना दिया था।
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जब ये रुस में भारत का राजदूत बनने के बाद स्टालिन से मिले तो, इन्होंने अपना परिचय अंग्रेजी में दिया था…
इस पर स्टालिन ने इनको अपने जबाब से लज्जित कर दिया था,
स्टालिन का कहना था कि :– क्या आप अंग्रेजी e बजाय – अपने देश की भाषा में अपना परिचय दे सकते हैं,
अगर नहीं तो – आप मेरे ऑफिस से बाहर जा सकते हैं।
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दो लिंक मैं दे रहा हूँ। एक ये जब यह नेताजी सुभाषचंद्र जी से मिला था।
https://bharatabharati.wordpress.com/…/netaji-bose-what…
जब इसने छात्र की नकल चोरी की थी।
http://roundtableindia.co.in/index.php?option=com_content…
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आप और क्या क्या जानना चाहते है – लीजिये – खोलिए – ये सब लिंक खोल कर देख देखिये :—
1 – https://openlibrary.org/authors/OL10095A.rdf
2 – रजनीश (ओशो) ने यह बात साहसपूर्वक कही थी “-
http://www.oshoworld.com/biography/innercontent.asp…
3 -पूरी कहानी इस वेब-पृष्ठ पर है जिसमें रजनीश ने थीसिस चुराने वाली कथा का भी विस्तार से उल्लेख किया :-
http://www.oshoworld.com/biography/innercontent.asp…
थीसिस चोरी की कहानी कई अन्य स्रोतों से भी मिल जायेगी, जैसे कि :-
http://crl.du.ac.in/…/…/index_files/ical-10_180_494_2_RV.pdf
http://realhindudharm.blogspot.in/…/native-peoples-party-br…
http://nativeindiancouncil.blogspot.in/2013_09_01_archive.h…
http://www.dawn.com/news/742051/subcontinental-plagiarism
http://www.nationaldastak.com/…/when-radhakrishnan-stolen-h…
4 – (1)1945 और बाद में 1987 में Robert Neil Minor ने चोरी की पूरी कहानी बिना किसी पक्षपात के प्रकाशित कर दी :-
https://books.google.co.in/books…
5 – (2)Robert Neil Minor की पुस्तक से बिना आभार व्यक्त किये, अर्थात चुराकर, और उसे राधाकृष्णन के पक्ष में तोड़-मरोड़ कर दो भारतीय लेखकों ने 1990 में यह प्रकाशित किया (अर्थात राधाकृष्णन के चेले भी उनकी ही तरह निकले !):-
https://books.google.co.in/books…
6 – देखें Internet Encyclopedia of Philosophy :–http://www.iep.utm.edu/radhakri/#H2
7 -1929 में राधाकृष्णन पर मुक़दमा ठोकने से तीन वर्ष पहले ही जदुनाथ सिन्हा – देखिये किन किन पदों पर रहे थे —
Philosophical section,
Bengali Literary Conference, Delhi 1926 के अध्यक्ष थे।
उसके बाद President, Indian philosophical Congress, Psychology Section,
Calcutta 1935,
फिर Indian Philosophical Congress (Poona) में General President भी बने।
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जदुनाथ सिन्हा “one-hit-wonder” नहीं,
भारत के शीर्षस्थ “दर्शन-शास्त्र” एवं “मनोविज्ञान-इतिहास” के रूप में आजीवन मान्यता प्राप्त विद्वान थे।
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साभार – मित्रगण
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संकलन और संसोधन – आदरणीय गिरधारी भार्गव जी -5.9.2018
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि जिस दिन महामना मालवीयजी ने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद का चार्ज़ सौंपा (17.9.1939), उस दिन उनके कुल 7 चित्र खींचे गये। इसके पश्चात् मालवीयजी के स्वर्गवास (12.11.1946) तक राधाकृष्णन के साथ महामना का एक भी चित्र नहीं खिंचा गया। यह सम्भव है कि कालान्तर में डॉ. राधाकृष्णन और महामना में मतभेद हो गए हों। महामना के निजी सचिव रहे ठाकुर शिवधनी सिंह ने अपनी पुस्तक ‘महामना मालवीयजी महाराज की छाया में 18 वर्ष’ में महामना और राधाकृष्णन के कटु प्रसंगों का सविस्तार वर्णन किया है। शिवधनी सिंह ने लिखा है कि कुलपति के रूप में राधाकृष्णन, महामना द्वारा की गई किसी विद्यार्थी या सेवक के लिये की गई पैरवी को कोई महत्त्व नहीं देते थे। इन सब तथ्यों के आलोक में डॉ. राधाकृष्णन के व्यक्तित्व पर पुनर्विचार करना आवश्यक है।
प्रो. यदुनाथ सिन्हा के शोध को राधाकृष्णन द्वारा ‘हिंदू फिलॉसफी’ शीर्षक से प्रकाशित करने का आरोप है। यह मामला न्यायालय में भी गया था।
अगस्त 1929 के महीने की पहली छमाही में, प्रो जदुनाथ सिन्हा ने 20,000/- रुपये के हर्जाने का दावा करते हुए राधाकृष्णनन पर मुक़द्दमा दायर किया। सितम्बर 1929 के पहले सप्ताह में, राधाकृष्णन ने जदुनाथ सिन्हा और श्री रामानंद चट्टोपाध्याय के खिलाफ 1,00,000/- रु. मानहानि का दावा किया। शायद राधाकृष्णन ने सोचा था कि हमला सबसे अच्छा बचाव है!
डॉ. राधाकृष्णन ने 1928 में ‘The Vedanta according to Sankara and Ramanuja’ नामक एक और पुस्तक प्रकाशित की थी, जो वास्तव में उनकी पुस्तक “Indian Philosophy” , Vol. II के अध्याय 8 और 9 का पुनर्मुद्रण था। उस किताब में प्रो. जदुनाथ सिन्हा की प्रेमचंद रॉयचंद स्टूडेंटशिप थीसिस के व्यापक पायरेटेड पैराग्राफ भी थे। प्रो. जदुनाथ सिन्हा के लिए सौभाग्य की बात है कि उन्होंने अपनी प्रेमचंद रॉयचंद छात्रवृति थीसिस के उन दो हिस्सों के उद्धरण 1924 और 1926 की मेरठ कॉलेज की पत्रिकाओं में प्रकाशित किए थे।
मॉडर्न रिव्यू’ के जनवरी 1929 के अंक में, बंगाली दार्शनिक जदुनाथ सिन्हा ने सनसनीखेज दावा किया कि 1925 में प्रकाशित उनकी डॉक्टरेट थीसिस, ‘इंडियन साइकोलॉजी ऑफ परसेप्शन’ के कुछ हिस्सों को उनके शिक्षक सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन फिलॉसफी’ की जिल्द 2 में कॉपी किया था जो 1927 में प्रकाशित हुआ। पत्रिका के फरवरी, मार्च और अप्रैल के मुद्दों में विवाद जारी रहा। अगस्त 1929 में, सिन्हा ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के खिलाफ उनके कॉपीराइट के उल्लंघन के लिए एक मामला दायर किया। सिन्हा ने हर्जाने का दावा किया 20,000 रुपये के लिए। राधाकृष्णन ने इन दावों का खंडन किया और बताया कि उनकी पुस्तक की पांडुलिपि 1924 में प्रकाशक को भेजी गई थी, लेकिन इसे 3 साल बाद प्रकाशित किया गया था क्योंकि जनरल एडिटर मुइरहेड अमेरिका में थे। राधाकृष्णन ने चरित्र की मानहानि के लिए प्रतिवाद किया, सिन्हा और मॉडर्न रिव्यू के संपादक, रामानंद चट्टोपाध्याय से 100,000 रुपये की मांग की। लेकिन सिन्हा का मामला मजबूत था; क्योंकि उनके कई लेख पहले ही प्रकाशित हो चुके थे। हालाँकि पार्टियों ने मुकदमेबाजी की लागत को बहुत अधिक पाया।
इसके बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से बंगाल विधान परिषद के सदस्य, श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अदालत के बाहर मामले को सुलझाने के लिए उनके बीच मध्यस्थता की। मई 1933 में मुकदमों का निपटारा किया गया, समझौते की शर्तों का खुलासा नहीं किया गया और अभिवचनों में लगाए गए आरोपों को वापस ले लिया गया।
साभार गुंजन जी अग्रवाल एवं अन्य साथीगण