
“एक दस्तक की कहानी”
कोई लगातार घंटी बजा रहा था।
भावना ने करवट बदली, आंखें मिचमिचाईं और दीवार की घड़ी की तरफ देखा — सुबह के 7 बज रहे थे।
उसने धीरे से खुद से बड़बड़ाया,
“इतनी सुबह कौन होगा?
शायद कबीर होगा…
दूध वाला फिर लेट हो गया होगा।”
लेख – मारुति नंदन बरनवाल देवरिया
वह उठने ही वाली थी कि पीछे से विराज की आवाज़ आई —
“तुम रुको,
मैं देखता हूँ।”
वो बड़बड़ाए,
चश्मा पहनते हुए,
“लोगों को सुबह-सुबह चैन क्यों नहीं है…”
भावना का दिल थोड़ा तेज़ धड़कने लगा।
कबीर दूध वाला था,
लेकिन उससे अक्सर किसी न किसी बात पर विराज की कहासुनी हो जाती थी — कभी पैसे को लेकर,
कभी देरी को लेकर।
“कहीं आज फिर झगड़ा न हो जाए…”,
वह सोचते हुए उनके पीछे-पीछे चल पड़ी।
जैसे ही विराज ने दरवाज़ा खोला,
सामने एक अनजान युवक खड़ा था।
करीब 22–23 साल का, साधारण कपड़े,
कंधे पर एक बैग टंगा हुआ।
उसकी आंखों में थकावट और चेहरे पर गहरी चिंता थी।
“जी?” विराज ने सख़्त स्वर में पूछा।
युवक ने झिझकते हुए कहा,
“माफ़ कीजिए,
मैं ग़लत वक़्त पर आया हूँ शायद।
पर… क्या ये मकान पहले मिसेज़ संध्या शर्मा का था?”
विराज और भावना दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा।
“हाँ,
था…
लेकिन अब हमें यहाँ रहते दस साल हो गए।
आप कौन हैं?”
भावना ने थोड़ा नरम लहजे में पूछा।
युवक ने गहरी सांस ली,
“मैं…
राघव।
संध्या मेरी माँ थीं।
मैं अनाथालय में पला-बढ़ा।
आज से कुछ दिन पहले मुझे एक चिट्ठी मिली,
जिसमें लिखा था कि मेरी असली माँ इस पते पर रहती थीं…
या रहती थीं।”
उसकी आवाज़ भीग गई थी।
भावना के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने जैसी हुई।
उन्होंने इस घर को दस साल पहले खरीदा था,
जब संध्या जी की मृत्यु हुई थी।
तब वो अकेली थीं,
कोई परिवार नहीं बताया गया था।
“तुम्हें ये सब कैसे पता चला?”
विराज का संदेह अब भी बाकी था।
राघव ने बैग से एक मुड़ी हुई चिट्ठी निकाली।
उस पर पुराने अक्षरों में लिखा था:
“मेरे बेटे राघव के लिए,
अगर कभी उसे सच्चाई पता चले।”
भावना ने चिट्ठी को कांपते हाथों से खोला।
संध्या जी की लिखाई उन्हें अच्छी तरह याद थी — वो इस कॉलोनी में सबकी मदद करती थीं,
शांत स्वभाव की।
चिट्ठी में लिखा था:
“राघव,
अगर ये चिट्ठी कभी तुझे मिले,
तो जान ले बेटा कि मैंने तुझे मजबूरी में छोड़ा था,
नफरत में नहीं।
मैंने तुझे एक बेहतर ज़िंदगी देने के लिए खुद से अलग किया। लेकिन अगर कभी तू मुझे ढूंढते हुए इस पते तक पहुंचे — तो जान ले,
मैंने तेरा इंतज़ार किया था… हर सुबह,
हर शाम।”
भावना की आंखें नम हो गईं।
राघव अब भी द्वार पर खड़ा था,
जैसे जीवन के सबसे बड़े मोड़ पर रुक गया हो।
“आओ बेटा, अंदर आओ।”
भावना ने कहा।
विराज ने भी एक गहरी सांस ली और सिर हिलाया।
राघव अंदर आया।
उसने घर को बड़े ध्यान से देखा — एक-एक दीवार, एक-एक कोना। भावना ने उसे पानी दिया, और खुद भी पास बैठ गईं।
“संध्या जी बहुत प्यारी थीं,” उन्होंने कहा।
“तुम्हारे बारे में उन्होंने कभी नहीं बताया,
पर अब समझ आ रहा है कि क्यों।
शायद दिल में बहुत दर्द था।”
राघव ने सिर झुकाया।
“मैं बस जानना चाहता था कि वो कैसी थीं…
क्या उन्होंने कभी मेरे बारे में सोचा…”
“बहुत,” भावना बोलीं, “हर सुबह वो एक पुराने झूले पर बैठकर चुपचाप कुछ लिखती थीं…
शायद वही चिट्ठियाँ।
वो कहती थीं कि हर माँ का एक कोना हमेशा अपने बच्चे के लिए खाली रहता है — चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो।”
कमरे में कुछ देर सन्नाटा छा गया।
फिर भावना उठीं और अलमारी से एक पुराना छोटा सा बक्सा निकाल लाईं।
“ये उनके कुछ पुराने सामान हैं,
जिन्हें हमने सहेज कर रखा था — कुछ खत,
एक डायरी, और उनकी एक तस्वीर।
शायद ये तुम्हारे काम आएं…”
राघव की आंखें भर आईं। उसने कांपते हाथों से वो सामान लिया, और माँ की तस्वीर को जैसे अपने दिल से लगा लिया।
“क्या मैं कुछ देर यहाँ बैठ सकता हूँ?
शायद वो यहीं कहीं होती हों…” उसने धीमे से कहा।
विराज ने कहा,
“बिलकुल बेटा। यह घर कभी उनका था… और अगर तुम चाहो, आज से यह तुम्हारा भी हो सकता है।”