
एक दिन किसी पार्टी में जाना हुआ। बच्चे की थाली में दाल-चावल आया। बच्चे ने चम्मच छोड़कर हाथ से खाना शुरू किया ही था कि उसकी माँ ने टोक दिया। वह बच्चे को आँखें दिखाते हुए बोली ‘बेटा स्पून से खाओ, बेड मैनर्स, हैंड से नहीं खाते’ ऐसा कहकर वह वहाँ साथ बैठे कुछ लोगों को देखकर ऐसे मुस्कुराई जैसे उसकी कोई चोरी बस पकड़ी ही जाने वाली थी लेकिन उसने बिल्कुल एन मौके पर बचा लिया।
मॉडर्न एटिकेट्स में हाथ से खाना खाने को तुच्छ समझा जाता है। किसी बड़े महँगे, फाइव स्टार होटल में आप कुर्सी पर आलती-पालती माड़कर बैठ जाएं और हाथ से दाल-चावल खाएँ तो आसपास की टेबल वाले आपको ऐसी नज़रों से देखेंगे जैसे कह रहे हों ‘ये कैसे-कैसे गँवारों को अंदर आ जाने देते हैं’।
इन होटल्स में आपको डोसा और समोसा भी छुरी-काँटे से खाते लोग मिल जाएंगे क्योंकि यह हाइ सोसायटी के मॉडर्न एटिकेट्स हैं। जबकि देसी लोग इन बातों को विशुद्ध चोचले करार देते हैं।
ख़ैर, ये एक अलग लड़ाई है लेकिन क्या आप जानते हैं कि भोजन यदि हाथ से किया जाए तो उसके स्वाद में अंतर आ जाता है और वह आपके शरीर को भी बेहतर लगता है???
आप कहेंगे ऐसा क्यों??
यदि आपको जुकाम हो और उस समय आप खाना खाते हैं तो क्या आपको किसी चीज़ का स्वाद ठीक से आ पाता है????
नहीं न ? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपकी घ्राण इन्द्रिय उस भोजन के स्वाद को पूरी तरह नहीं चख पा रही है।
यदि मैं कहूँ कि आज आपको आँखों पर पट्टी बाँधकर भोजन करना है तो क्या आपको खाना-खाने में मज़ा आएगा???
उतना नहीं जितना उस स्वादिष्ट भोजन के टेक्सचर को देखकर खाने में आएगा। भोजन यदि दिखने में सुंदर हो, उसकी प्रस्तुति अच्छी हो तो वह उसका स्वाद बढ़ा देती है, क्योंकि आपकी चक्षु इंद्रिय ने भी भोजन करने की प्रक्रिया में हिस्सा लिया।
अब आप बताएँ कि किसी क्रंची से फ़ूड को चबाने की आवाज़ ही ना आए तो क्या उसमें मज़ा आएगा? उतना नहीं।
मतलब भोजन करते समय आपकी कर्ण इन्द्रिय भी अपनी भागीदारी निभाती है, चबाने की आवाज़ से उसका आनंद लेकर। तो जब आप जिह्वा, घ्राण, चक्षु, और कर्ण इन चारों इंद्रियों को भोजन के स्वाद के लिए उपयोगी मानते हैं, इनके साथ भोजन का आंनद बढ़ जाता है तो फिर पाँचवी और सबसे अहम इन्द्रिय ‘स्पर्शन’ को क्यूँ छोड़ देते हैं हम।
भोजन को छूने से उसके टेक्सचर का पता चलता है। गरमागरम भजिए उतरकर आए हों या बढ़िया स्पॉन्जी ढोकला बना हो, जब तक उसे छूकर, हाथ में लेकर नहीं खाएँगे उसका स्वाद अधूरा रह जाएगा।
छुरी-काँटे से आप स्पर्शन इन्द्रिय की क्षमता को सीमित कर देते हैं और भोजन उस संपूर्णता के साथ भीतर नहीं जा पाता जिसके साथ उसे जाना चाहिए और इस पाँचवीं इन्द्रिय के साथ निभाने से भोजन करते समय आपके चित्त की उपस्थिति यानि आपकी कॉन्शियसनेस भोजन के प्रति और बढ़ जाती है…. फिर वो कहते हैं ना, जैसे खाओगे अन्न, वैसा होएगा मन्न। तो भैया अपने को तो भोजन हाथ से करना सही लगता है।
अगर आपके घर में कोई छोटा बच्चा है तो आप उसे गोद में लेकर अपने हाथ से खिलाने के बदले उसे खुद के हाथों से खाने दीजिए। भले ही वह थोड़ा इधर उधर छींटेगा, थोड़ा ख़ाना जमीन पर गिराकर बर्बाद करेगा पर इससे उसे संतुष्टि मिलेगी और यह खाना उसके शरीर में लगेगा भी। आपका क्या विचार है??