
मोदी-ट्रंप संवाद के बीच पाकिस्तान की भूमिका: भारत अमेरिका की ‘डबल गेम’ नीति पर कब तक मौन रहेगा?
# एक भ्रमित करता कूटनीतिक परिदृश्य
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच “ऑपरेशन सिंदूर” को लेकर हुई गोपनीय बातचीत उस समय सामने आई जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर अमेरिका की यात्रा पर थे और स्वयं ट्रंप के साथ लंच पर आमंत्रित थे। भारत के लिए यह सिर्फ एक संयोग नहीं, बल्कि एक रणनीतिक संकेत है — कि अमेरिका अभी भी दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान को एक ही पलड़े में तोलने की नीति पर कायम है।
यह घटनाक्रम भारत के समक्ष एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है: क्या भारत को अमेरिका के ऐसे दोहरे रवैये पर भरोसा करना चाहिए, या उसे अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को और अधिक स्पष्ट, मुखर और आत्मनिर्भर बनाना चाहिए?
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य: अमेरिकी प्रभाव के सामने मोदी सरकार की चुप्पी
प्रधानमंत्री मोदी की ट्रंप से 35 मिनट की फोन वार्ता को विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने मीडिया को बताया, पर स्वयं मोदी और प्रधानमंत्री कार्यालय के सोशल मीडिया हैंडल इस संवेदनशील बातचीत पर मौन हैं। यह मौन केवल सूचना का अभाव नहीं, बल्कि राजनीतिक संप्रभुता के आत्मसमर्पण जैसा प्रतीत होता है।
भाजपा नेतृत्व और उनके समर्थक मीडिया द्वारा इसे “राजनयिक विजय” की तरह पेश करने का प्रयास हो रहा है, जबकि हकीकत यह है कि जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख ट्रंप के साथ बैठकर भारत के विरुद्ध कूटनीतिक वातावरण रच रहे हैं, तब भारत अपनी कूटनीतिक प्रतिक्रिया तक सार्वजनिक नहीं कर रहा। यह चुप्पी 21वीं सदी के भारत के आत्मविश्वास के विपरीत है।
भूराजनीतिक परिप्रेक्ष्य: अमेरिका की दक्षिण एशिया नीति और पाकिस्तान कार्ड
अमेरिका लंबे समय से भारत और पाकिस्तान को ‘समानांतर प्रतिस्पर्धी साझेदारों’ के रूप में देखता आया है। ट्रंप ने पहले भी कई बार भारत-पाकिस्तान के विवादों को “हजारों साल पुराना पारिवारिक झगड़ा” करार दिया और यह दावा किया कि उन्होंने युद्ध को टालने में मध्यस्थता की।
अब, जब ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान के जनरल असीम मुनीर वाशिंगटन में ट्रंप के साथ बातचीत कर रहे हैं — वह भी उस समय जब भारत में एक गंभीर आतंकी हमला हुआ है — यह साफ संकेत है कि अमेरिका की पाकिस्तान नीति अब भी सैन्य संबंधों पर केंद्रित है, जो कि चीन के विरुद्ध एशिया में एक और मोर्चा खोलने के लिए आवश्यक मानी जाती है।
पाकिस्तान, अमेरिका और चीन — तीनों को साधने की जिस “बहु-ध्रुवीय” रणनीति पर चल रहा है, वही भारत के लिए ख़तरा बनती जा रही है।
कूटनीतिक दृष्टिकोण: क्या भारत अपनी विदेश नीति को पुनः परिभाषित करेगा?
प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप को तीसरे पक्ष की मध्यस्थता अस्वीकार करने की बात भले कह दी हो, लेकिन इस रुख का सार्वजनिक और रणनीतिक स्तर पर प्रचार न करना दर्शाता है कि भारत अभी भी अमेरिकी प्रतिक्रियाओं को देखकर ‘संतुलित मौन’ की नीति अपनाए हुए है।
यह मौन केवल भारतीय लोकतंत्र के लिए नहीं, बल्कि भारत के वैश्विक प्रभाव के लिए भी खतरनाक है। जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नेता आतंकवाद पर दोहरा मापदंड रखने वाले राष्ट्रों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे, तो यह उस नैतिक उच्चता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा देता है, जिसकी दुहाई भारत वैश्विक मंचों पर देता रहा है।
पाकिस्तान-अमेरिका सैन्य संवाद: भारत के लिए खतरे की घंटी
असीम मुनीर की यात्रा सामान्य सैन्य संवाद नहीं है। यह दौरा उस समय हुआ जब भारत जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से जूझ रहा है और ऑपरेशन सिंदूर जैसी जवाबी कार्रवाई कर रहा है। अमेरिका के लिए असीम मुनीर को आमंत्रित करना भारत की पीठ में छुरा घोंपने जैसा है।
यहां यह समझना आवश्यक है कि पाकिस्तान अमेरिका के लिए हमेशा से ‘टैक्टिकल एसेट’ रहा है, चाहे वह अफगानिस्तान युद्ध हो या चीन से सामरिक संतुलन का प्रयास। इस पृष्ठभूमि में, भारत यदि अमेरिका पर अंधा विश्वास करता है, तो यह भयंकर रणनीतिक भूल होगी।
* अब समय है मुखर और पारदर्शी कूटनीति का
भारत को अब यह समझना होगा कि अमेरिका की दक्षिण एशिया नीति भारत के हितों के अनुकूल नहीं, बल्कि अपने सामरिक संतुलन के तहत संचालित होती है। भारत को अब मुखर, पारदर्शी और आत्मनिर्भर विदेश नीति की ओर बढ़ना होगा — जिसमें अमेरिका हो या रूस, ईरान हो या इज़राइल — हर देश के साथ संवाद राष्ट्रीय हितों के स्पष्ट और असंदिग्ध आधार पर किया जाए।
प्रधानमंत्री मोदी को यह भी समझना चाहिए कि राजनयिक संवाद गोपनीयता से नहीं, पारदर्शिता से प्रभावशाली होते हैं। यदि वास्तव में उन्होंने ट्रंप को भारत की नीति स्पष्टता से समझाई है, तो उसे छिपाने की आवश्यकता क्यों है?
अब वह समय आ गया है जब भारत को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी ‘सॉफ्ट पावर’ के साथ ‘हार्ड डिप्लोमेसी’ भी दिखानी होगी — ताकि पाकिस्तान और उसके संरक्षकों को यह संदेश स्पष्ट रूप से मिले कि भारत केवल सुनता नहीं, उत्तर भी देता है।