
यादें बचपन की 📺 📷
‘क्यों, ये देखकर कुछ याद आया?’
बहुत दिनों बाद यह “भार” देखा जोकि अब लगभग लुप्तप्राय हो गया है।
अचानक से 20-25 साल पहले का समय याद आ गया जब लोग महरा काका के यहाँ दाना-लाई-चबैना भुजाने जाया करते थे।
काकी 3 बजे दोपहर ही भार जला देतीं।
भार से उठता हुआ धुँआ देखकर लोग कह उठते, ‘चल-चल, भार जल गया।’
फिर वहाँ पहुँचते-पहुँचते लोगों की लाइन लग जाती।
सब कहते हे काकी!
पहले हमारा,
पहले हमारा !!
अब सोचता हूँ तो पाता हूँ यह भार बहुत ही वैज्ञानिकता पर आधारित था।
इसमें भार के मुँह, जिधर से झोंका जाता है- उसकी तरफ से अलग-अलग ऊँचाई और दूरी पर अलग-अलग छेद बनाये जाते।
उन छेदों में छोटी-छोटी मटकी लगाई जाती।
उनमें बालू भरी रहती।
हर मटकी की बालू अलग-अलग तापमान पर गर्म होती।
जो दाना जिस तापमान पर भूजा जाना है, काका-काकी उसे उसी तापमान वाली बालू निकालकर भूजते। फिर चाहे ज्वार-बाजरा हो चाहे गेहूं-जौ या चावल-मक्का हो या फिर चना-मटर।
हल्की गर्म बालू में वो अनाज को पहले कउरि देते, फिर उसे ज़्यादा गर्म मटकी वाली बालू में डाल दिया जाता।
अनाज पट-पटाकर फूट जाता।
उससे दाना-चबैना, लाई, मुरमुरा, लावा तैयार हो जाता।
यह बात उन्होंने किसी किताब में नहीं पढ़े थे, बल्कि यह ज्ञान उन्होंने अपने अनुभव और ऑब्ज़र्वेशन से हासिल किया होता था।
दाना-चबैना, लाई, मुरमुरा, लावा हम देहाती लोगों का प्रमुख और एकमात्र स्नैक होता।
कलेवा या खरमिटाव के लिए, खेती-किसानी से लौटकर, राही-बटोही के लिए, भैंस चराने के दौरान गमछे में बांधे रहते…
और कभी-कभी स्कूल के इंटरवल में भी।
यही खाया-चबाया जाता। साथ में थोड़ा सा नोन-मिर्च पीस कर रख दिया जाता। और एक ढोंका गुड़। इसके बाद एक लोटा पानी पी लिया जाता। दो-चार घंटे के लिए फुर्सत।
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