
बलाई कोट किले के भग्नावशेष।
बचा ही क्या है?
किले के अंदर की एक दीवार का कुछ हिस्सा जिसमें कुछ बरामदे से मौजूद हैं। काली नदी के तट पर तीन चार खंडित होती मीनारें।
अगर और कुछ नहीं हो तो पुरातत्वविदों के अलावा ये कहां किसी के मतलब के होंगे!
लेकिन इनके साथ जुड़ी हैं हमारी कितनी विस्मृत हो चुकी यादें और किवदंतियां। पीढ़ी दर पीढ़ी ये कहानियां की ये है बरन का वो बलाई कोट जहां से हम निकले थे।
कभी कोई गुफा के रास्ते जाए जाने वाला मंदिर, पता नहीं कब गुफा का मार्ग बंद कर दिए जाने के बाद बंद हो गया। सुनते हैं बलाई कोट के सामने बरनवालों के पूर्वज राजाओं से संबंधित शिलालेख भी थे जो कुछ वर्ष पूर्व जब इलाके में शत प्रतिशत मुस्लिम आबादी हो गई तो कहीं उखाड़ कर फेंक दिए गए।
काली मस्जिद जिसके बारे में सुनते हैं की कभी काली मंदिर हुआ करती थी। जामा मस्जिद जिसके बारे में सुनते हैं कभी दुर्गा मंदिर हुआ करती थी।
लेकिन ये जो है, वो है तो!
कम से कम………..
जब आप अपना इतिहास ढूंढने निकलेंगे तो कम से कम आपको कुछ तो ऐसा मिलेगा जिससे आप कहेंगे की यहां हम बसते थे सदियों तक।
सदियों तक हम कहीं खोए रहे, विस्थापन के बाद अपने आपको संभालने में।
अपने स्थान, जहां आप कभी राजा थे,
वहां से निकल कर सैकड़ों किलोमीटर दूर, गांवों में और शहरों में, बिल्कुल स्क्रैच से शुरू करने का संघर्ष, हमारे पूर्वजों ने झेला।
ये विस्थापन का दंश और पहचान बचाए रखने का संघर्ष, आज भी जारी है।
बिहार के पटना जिले के मोकामा में बाहुबलियों के आतंक से डर कर भागने का दर्द, सीवान के चंदा बाबू का दर्द और बरन से हमारे पूर्वजों के भागने का दर्द। ये सब जैसे एकाकार हो रहे हैं। समय और काल के हिसाब से आतातायी बदल गए लेकिन दर्द और संघर्ष एक सा ही है।
लेकिन अब, ये जो कहानी है इसे मिटने नहीं देना है अपने पूर्वजों को याद रखने का सबसे बेहतर मार्ग।
जो बचा है उसे सहेज कर रखने की चुनौती को जीतना है हमारा पुनीत कर्त्तव्य। हम हैं सर्वाइवर सदियों पहले की एक त्रासदी के। इस कहानी को भूलना नहीं है, इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते रहना है।
इस इतिहास को क्लेम करने के लिए और “बरन वाले” की पहचान को बनाए रखने के लिए हम जमा होंगे अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने के लिए उनके घर, नगर में। आयोजन होगा महाराजा अहिबरन का जन्मोत्सव, लेकिन हमें याद रखना होगा उन सभी पूर्वजों को जिनके पौरुष और साहस से हमारी पहचान कायम है।
इस वर्ष महाराजा अहिबरन का जन्मोत्सव उनके अपने नगर बरन में। हाथ से हाथ मिलाएं और बनाएं इसे एक राष्ट्रीय स्तर का विहंगम कार्यक्रम।
सादर