
कहते हैं माँ से मायका होता है।
विवाहित ही नहीं,पढ़ाई या जॉब के लिए घर से दूर रहनेवाली अविवाहित बेटियाँ भी माँ के चले जाने के बाद ना सिर्फ घरवालों बल्कि घर के भी स्वभाव में,एक-2 दरोदीवार में रिक्तता महसूस करती हैं। ‘माँ से मायका’ सामान्यतया यह उक्ति दूर बसी हुई बेटियों के संदर्भ में ही कही जाती है।
पर घर से दूर बसे बेटों के लिए भी तो बहुत सूना,बिल्कुल अनजाना हो जाता होगा ना वही घर जहाँ दरवाजे पर पहुंचने की आहट लगते ही माँ आल्हादित होकर बाहर आते हुए कहती थी,’आ गया? रुक वहीं ठहर। लोटा भर पानी फेर दूँ तेरे ऊपर से। गैल चलकर आया है।’ भाईबहनों, भाभी,भतीजों से किलोल करते बेटे के विश्रांत मन का,उसकी खोखली हँसी का चुपचाप बैठी माँ आँखों ही आँखों में सीटी स्कैन करती रहती है।
वह दुनियादारी की बातें नहीं करती कि कामधंधा कैसा चल रहा है। बस अकेला पाकर अपने पास खींच लेती है। ऊँचाई में अपने से दोगुने,अनमने से,सकुचाते हुए बेटे का सर पार्किंसन से कांपते हाथों से गोद में रखा लेती है। सर पर हाथ फेरते हुए पूछती है,’कल कढ़ी खाएगा ना? तेरी पसंद जैसा खूब खट्टा हो रखा है मठा। मुझे लग ही रहा था तू आता है’ और जैसे बेटे के सूजे हुए घावों पर किसी ने औषधि का फाहा रख दिया हो। आत्मा की दरारें भरने लगती हैं। बॉस के द्वारा प्रतिदिन किया जा रहा अपमान,सहकर्मियों के षड्यंत्र,क्लाइंट्स की शिकायतें सब जैसे कुछ क्षणों के लिए बहुत पीछे छूट जाती हैं। वह माँ की गोद में आश्वस्त हो पैर पसारता हुआ आँखें मूँदकर कहता है,’अम्मा,ऐसे ही हाथ फेरती रह सर पर। थक गया हूँ। सोना है।’ और डेढ़ पसली की छोटी सी माँ के कांपते हाथों का वह जादुई स्पर्श अस्सी किलो के छह फुटा बेटे के शरीर का ही नहीं, मन का भी समस्त ताप हर लेता है।
आप तो चली गईं बा। अब संसार भर के ज्ञात अज्ञात शत्रुओं, षड्यंत्रों, कटाक्षों, तानों,आरोपों,तंत्रमंत्रों,कर्तव्यों से जूझ रहा आपका यह प्रवासी बेटा अपने आँसू छिपाते हुए जबतब किसकी गोद में गिरकर कहेगा,’माँ,मेरे सर पर हाथ रख दे। बहुत थक गया हूँ। अपना हाथ मेरे सर पर रखकर मेरा संताप हर ले माँ।’ इस भरेपूरे संसार में नितांत अकेले रह गए इस आहत हृदय बेटे के टूटे मन पर अपने स्नेह,अपनी ममता का मरहम अब कौन लगाएगा बा?