
सम्पादकीय
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
यूं जिद न किया करो मेरी दास्तां सुनाने की
मैं हंस के सुना दूंगा तुम रोने लगोगे??
सच की ईबारत को तहरीर करना आज के जमाने मे आसान नहीं है।दास्तां अपनी अपनी लोग सुनाते जरूर है मगर समाधान कोई नहीं है।।वास्तविकता के धरातल पर खुद की तबाही का इन्तजाम आदमी खुद ही करता है। कहा गया है कि हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती है इसकी परख पारखी जौहरी ही करता उसका मोल लगा पाता है।लालच के लोलुपता में चमकदार वस्तु को अपना समझ कर गले में लटकाने वालो का हश्र तो जमाना देख चुका है। पश्चाताप के आंसू रो रोकर बुरा हाल होने के बाद समाज में कभी अकड़ कर चलने वाला जगह जगह झुका हैआहत हुआ है।बाराणसी से एक हमारे अजीज मित्र ने अपनी ब्यथा को वर्णन किया जब की खुद ही उस कांटों भरी राह पर चलने का निर्णय किया! जो अपना है ही नहीं वह अपना कभी नहीं होगा।यह तो सदियों से समाज में प्रचलित है। मोह बस स्वार्थ के सानिध्य में ज़िन्दगी के हसीन पलों को परमार्थ का भ्रम पैदा कर बिना नाविक के नाव के तरह दुर्भाग्य की उफनती धारा में बेचारा बनकर मन्जिल की तलाश करने वालों को किनारा कब मिला है।हमेशा महकता गुलाब कांटों के बीच ही खिला है। बुद्धिमान बांगवा ही जिन्दगी के गुजरते लम्हों में दर्द को सहकर कांटों के बीच रहकर माला पिरोता है।मतलब की बस्ती में आशियाना बनाने वालो का ठीकाना भी मतलब परस्ती की बाढ में बह जाता है। खुद को आईना बनाकर परमार्थ की सुखद तस्वीर उकेरने वाला कभी पश्चाताप के समन्दर में गोता नहीं लगाता! जब पता है वहीं होता है जो मन्जूरे खुदा होता है। तो फिर बुजदिली पालकर क्या रोना! अन्जानी नदी की गहराई का पता न हो तो उसमें तैरने के लिए कभी नहीं उतरना चाहिए यह बातें शास्त्र सम्मत है! फिर भी तैराक काबिल हो तो ज़िन्दगी की जन्ग जीत कर मन्जिल पर डेरा डाल देता है।।तैराकी का हूनर न हो तो लोग चुल्लू भर पानी मे भी डूब जाते हैं। आज का दौर चमक धमक का है!उपर से कुछ और है अन्दर से कुछ और है!जिसने समझदारी की दीवार तोड़कर अपनी जबाब दारी कायम किया उसके जीवन में होने वाली तबाही की बमबारी को कोई नहीं रोक सकता है?।पहचान मुकम्मल नहीं राह चलते हमदर्दी की गोली खिलाकर अपना बनाने का ख्वाब जिसने भी अपने जीवन के जहरीले पथ पर अंगीकार किया वह निश्चित रूप से बदहाली के बवंडर का शिकार होकर घुट घुट कर सब कुछ रहकर भी तन्हाई में दम तोड देने को मजबूर हो गया। जो है नहीं है अपना, केवल ख्याली सपना है फिर भी वहीं जानबूझकर कोई बनाए ठीकाना!तब तो फिर ऐसे लोगो का तो भगवान ही मालिक है।!भौतिक वादी युग में जब कदम कदम पर ब्यवस्था बेदम हो रही है! पुरातन आस्था का परिमार्जन हो रहा है!आदमी इन्सानियत खो रहा है! मानवता का विलोपन हो रहा है।अपना पराया, पराऐ का समर्थन हो रहा है।जीवन की जहां अन्धेरी रात में भी चन्द्र दर्शन हो रहा है।लाज लिहाज खत्म भरे पूरे परिवार समाज के सामने ही नंगाअंग प्रदर्शन हो रहा है। विकृत होते आधुनिक युग में जब सम्बन्धों की सीमा टूट गयी है ऐसे माहौल मे जहां कदम कदम पर दल दल है सम्हल कर चलना मजबूरी है। सामाजिक प्रदुषण इस कदर उफान पर है कि जरा सी चूक पछतावा का कारण बन जायेगी! खुशहाली सदा के लिए तंगहाली का गुलाम बनकर बे मौत मरने को बाध्य हो जाती है! इस आधुनिक समाज में जब फैसन परस्ती की आवाज बुलन्दी पर है भारतीय संस्कृति धाराशाई हो रही है।पाश्चात्य सभ्यता दरवाजे दरवाजे दस्तक दे रही, तब भी सभ्य समाज अपने वजूद का तिरस्कार कर बर्वादी का मंजर तैयार कर रहा है।अब सामाजिक बंधनों का डर नहीं! सब आधुनिकता के अन्धड में बुरी तरह उलझ ग्ए है! इससे बन्चित कोई घर नहीं। आखिर कहां खोता जा रहा है आज का पुरातन पारिवारिक परिवेश !कितना पतन हो गया है लोगे के ईमान का! पता नहीं क्या होने वाला है बदलते हिन्दुस्तान का! हर कोई तबाही के दौर से गुजर रहा है।देखिए वक्त की सूई सम्बन्धों की धूरी पर कब तक मजबूरी का समय दिखाती है।
सबका मालिक एक🕉️ साईं नाथ
जगदीश सिंह सम्पादक
7860503468