
भगवान श्रीकृष्ण का सोलह हजार राजकन्याओं के साथ विवाह!!!!!!!
एक बार भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में राज सभा में बैठे थे ।
उसी समय ऐरावत हाथी पर सवार होकर देवराज इन्द्र उनसे मिलने आए और बोले—
‘मधुसूदन !
इस समय आप मनुष्य रूप में पृथ्वी लोक में स्थित हैं;
लेकिन अरिष्टासुर,
धेनुकासुर,
बकासुर,
केशी,
पूतना,
कुवलयापीड़,
कंस आदि—जो-जो भी दैत्य संसार के लिए कष्टप्रद थे,
उन सबका वध करके आपने त्रिलोकी को सुरक्षित कर दिया है।
लेकिन पृथ्वी देवी का पुत्र भौमासुर (नरकासुर) जो प्रागज्योतिषपुर (आसाम, कामरूप) का स्वामी है,
वह इस समय समस्त जीवों को बहुत त्रस्त कर रहा है।
उसने देवता,
असुर और सोलह हजार राजकन्याओं को जबरदस्ती लाकर अपने अंत:पुर में बंद कर दिया है।
कौन है ये सोलह हजार राजकन्याएं ?
ये सोलह हजार राजकन्याएं वेद के देवता हैं ।
प्रत्येक वेद-मंत्र का एक देवता,
ऋषि व छन्द होता है ।
देवता, ऋषि और छंद का ज्ञान होने पर ही वेद-मंत्र फलदायी होता है;
अन्यथा कभी-कभी वह विपरीत फल देता है ।
वेद परमात्मा का वर्णन करते-करते थक गए;
किंतु उनको परमात्मा का अनुभव नहीं हुआ,
वे उनको पा न सके।
वेद-मंत्रों के देवता तपश्चर्या करके थक-हार गए;
फिर भी ब्रह्मसम्बन्ध नहीं हो पाया।
जिस प्रकार केवल भोजन का वर्णन करने से तृप्ति नहीं होती है,
उसके लिए भोजन करना पड़ता है ।
उसी तरह से परमात्मा के दर्शन से ही लाभ नहीं होता,
बल्कि उनका अनुभव करने से लाभ होता है ।
इसलिए वेद-मंत्रों के देवता ब्रह्म-सम्बन्ध स्थापित कर परमात्मा का अनुभव करने,
उनकी सेवा करने के लिए राजकन्याओं के रूप में प्रकट हुए ।
सोलह हजार क्यों ?
वेद में कर्म,
भक्ति और ज्ञान इन तीनों का वर्णन है ।
वेद-मंत्र एक लाख हैं ।
उसमें से—
चार हजार मंत्र ज्ञानकाण्ड के हैं जो वानप्रस्थियों के लिए हैं।
ज्ञानकाण्ड बहुत कम है ।
विरक्त साधु-संन्यासी ही ज्ञान काण्ड पर विचार करते हैं ।
▪️ सोलह हजार मंत्र भक्ति-उपासना काण्ड के हैं जो गृहस्थ के लिए हैं ।
▪️ शेष अस्सी हजार मंत्र कर्म काण्ड के हैं जो ब्रह्मचारी के लिए हैं ।
वेद में भक्ति काण्ड के सोलह हजार मंत्र ब्रह्मानुभव करने के लिए राजकन्याओं के रूप में प्रकट हुए ।
इन राजकन्याओं को भौमासुर ने बंदी बना लिया था ।
परम पूज्य श्रीडोंगरेजी महाराज ने भौमासुर का अर्थ इस प्रकार बताया है—‘जो शरीर के साथ रमण करने में सुख मानता है,
वह भौमासुर है’ ।
भौमासुर का संकल्प था कि जब एक लाख कन्याएं इकट्ठी हो जाएंगी,
तब उनके साथ विवाह करुंगा ।
राजकन्याएं रूपी वेद-मंत्रों के देवता विलासी भौमासुर के हाथ में आ गए।
वह राजकन्याओं को कैद में रखता है।
विलासी व्यक्ति मंत्र का अपने कामी मन की पुष्टि के लिए गलत प्रयोग करता है;
जबकि वेदों को भोग पसंद नहीं है,
वेद में त्याग का महत्व है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर की राजधानी प्रागज्योतिषपुर जाकर उसका वध कर दिया और इन राजकन्याओं को कैद से छुड़ाया ।
इन राजकन्याओं के साथ संसार का कोई भी राजपुरुष इसलिए विवाह करने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि ये भौमासुर की कैद में रह चुकी थीं ।
सब इनका तिरस्कार करते थे।
मनुष्य जब दु:ख में अकेला पड़ जाता है तो ऐसा सोचता है कि इस संसार में मेरा कोई नहीं है ।
उस समय भगवान को यह बात बहुत बुरी लगती है;
क्योंकि वे तो निराधार के आधार हैं, वे सबके हैं ।
मनुष्य चाहे दिन में चार बार ही उनके दर्शन करे,
किंतु वे तो हर समय हमें देखते रहते हैं ।
संतों ने कहा भी है—
कभी भगवान भक्तों को दुखी नहीं होने देते ।
जैसे मां-बाप बच्चों को कभी रोने नहीं देते ।
बुराइयां दूर बच्चों की सभी मां-बाप करते हैं ।
प्रभो आकर के भक्तों के पाप और ताप हरते हैं ।
भक्त की राह में कांटे कभी बोने नहीं देते ।।
ये सोलह हजार राजकन्याएं निराधार होकर भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आईं ।
भगवान ने सोचा—
ये बेचारी अपना जीवन कैसे व्यतीत करेंगी, ये तो बहुत दु:खी हैं ।
इसलिए भगवान ने निश्चय किया—
मैं इन राजकन्याओं के साथ विवाह करुंगा ।
परमात्मा ने कृष्णावतार में निश्चय किया कि रामावतार में मैं मर्यादा में बंधा था किंतु अब लोग चाहें कुछ भी कहें;
मुझे जो उचित लगेगा, वही करना है ।
भगवान श्रीकृष्ण महायोगेश्वर हैं ।
उनकी ऐश्वर्य शक्ति ने सोलह हजार मंडप खड़े कर दिए,
सोलह हजार राजमहल तैयार कर दिए ।
श्रीकृष्ण के सोलह हजार स्वरूप भी प्रकट कर दिए ।
कुछ ग्रंथों में तो यहां तक कहा गया है कि विवाह में ब्राह्मण की आवश्यकता रहती है ।
यादवों के कुलगुरु गर्गाचार्यजी है ।
भगवान ने ऐसी लीला की सोलह हजार गर्गाचार्यों की भी रचना हो गई ।
प्रत्येक मंडप में गर्गाचार्यजी बैठे विवाह विधि संपन्न करा रहे थे ।
इस प्रकार श्रीकृष्ण सोलह हजार रानियों के स्वामी बने । उन्होंने संसार को यही संदेश दिया कि
‘स्नेह सभी से करो किंतु किसी में भी आसक्त न बनो।’
भगवान श्रीकृष्ण ने जिस अनासक्ति का गीता में उपदेश दिया है,
उसे उन्होंने अपने जीवन में भी पूरी तरह चरितार्थ किया
श्रीकृष्ण भोगी होने पर भी त्यागी हैं ।
द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां,
उनके एक-एक के दस-दस बेटे,
असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया,
हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया।
क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है?