
एक लड़का खुले में शौच करने बैठा था। वह एक साँप को अपनी ओर आते देख घबरा गया और इसी घबराहट में वह साँप को जाते हुए नहीं देख पाया।
और तब उसे वहम हो गया कि हो न हो वह साँप उसके भीतर घुस गया।
अब तो उसे पेट में कुछ इधर उधर सरकता हुआ भी मालूम पड़ने लगा। और उसके भय की कोई सीमा न रही।
“साँप घुस गया! साँप घुस गया! मेरे पेट में साँप घुस गया! हाय मैं मारा गया! कोई बचाओ!” कहता हुआ, वह बदहवास होकर गाँव की ओर दौड़ा।
उसे वैद्य जी को दिखाया गया। शहर ले जाकर बड़े डाक्टर को दिखाया गया।
एक्स-रे करवाए गए। पर साँप होता तो दिखता। उसे लाख समझाया गया, पर वह माने कैसे? डाक्टर कहते हैं कि तूं पागल हो गया है।
वह समझता है कि ये सारे डाक्टर पागल हैं। बड़ी समस्या हो गई।
दो ही दिन में उसकी भूख प्यास, नींद आराम सब गायब हो गया और वह मरने को पड़ गया।
संयोग से एक संत को मालूम पड़ा, तो वे आए। उससे पूछा कि कैसा साँप था? कितना लंबा था? रंग क्या था? और कहा- “बेटा चिंता मत करो! मैंने जान लिया है कि साँप तुम्हारे पेट में ही है।
मैं कल दोबारा आऊँगा और साँप निकाल दूंगा।”
लड़के को बड़ी सांत्वना मिली कि कोई तो है जो मेरी बीमारी को समझता है।
अगले दिन संत वैसा ही दूसरा साँप झोले में छिपा लाए, लड़के पर चादर ओढ़ाई, पेट दबाया, और तुरंत झोले से साँप निकाल, लगे कहने- “मिल गया! मिल गया! रुक रुक कहाँ भागता है? अरे ठहर!” और चादर हटा दी। साँप तो हाथ में था ही।
लड़के को दिखा कर, फिर झोले में डाल लिया।
और वह लड़का ठीक हो गया।
लोकेशानन्द कहते है कि जैसे झूठी बीमारी से बचाने के लिए झूठा ईलाज करना पड़ा,
वैसे ही इस काल्पनिक संसार से छूटने के लिए, भगवान के एक नाम और रूप की कल्पना करनी ही पड़ती है।
इसके सिवा, जन्म मरण के बंधन से छूटने का न कोई उपाय था, न है, न होने की संभावना ही है।