
कई हजार वर्ष पुरानी बात है।
अनपढ़ों का एक गांव था।
सभी के पास कोई ना कोई स्वरोजगार था,
खेती थी,
बगीचे थे।
धन- धान्य से समृद्ध था और उस गांव में कोई भी गरीब नहीं था।
उसी गाँव में एक पढ़ा लिखा व्यक्ति भी रहता था।
वह रोज कुछ ना कुछ पढ़ता और लिखता रहता था।
लोगों की समझ में नहीं आता था कि वह करता क्या है।
लेकिन फिर भी सम्मान बहुत करते थे उसका,
क्योंकि विलायत से बहुत महंगी डिग्री लेकर आया था।
एक दिन उसने गांव के सभी लोगों को बुलाया और बोला कि तुम लोग भी पढ़ना लिखना सीख लो।
फिर तुम्हें भी खेती,
मजदूरी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
गांव वाले सहर्ष सहमत हो गए और कुछ ही दिनों में सभी पढ़े लिखे हो गए।
अब सभी दिन भर बैठकर पढ़ते लिखते रहते थे।
दिन भर बैठे-बैठे कोई ना कोई कुछ ना कुछ लिखता रहता और फिर दूसरे को पढ़ाता।
फिर दूसरा व्यक्ति अपना लिखा उसे देता पढ़ने के लिए।
कुछ ही दिनों में वह गांव पढ़े लिखे बेरोजगारों के गांव के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
गरीबी,
भुखमरी,
प्रायोजित महामारी और प्रायोजित सुरक्षा कवच की चपेट में आकर कुछ ही वर्षों में सभी जीवन- मरण के चक्र से मुक्ति पा गए।
इसीलिए विद्वानों ने कहा है,
“जीवन मरण के चक्र से
यदि मुक्ति पानी है,
तो पढ़ना लिखना
बहुत जरूरी है।
खेत बेच दो, बाग बेच दो
बेच दो कुएं और तालाब
नदी बेच दो, पहाड़ बेच दो
बेच दो जिस्म, जमीर और ईमान
और खरीद लो
महंगी-महंगी डिग्रियां।
ताकि मोक्ष मिले, स्वर्ग मिले
मिले जीवन मरण से मुक्ति
आज भी जब पढ़े-लिखों को बेरोजगार भटकते देखता हूं।
बिकते हुए नेता,
अभिनेता,
पत्रकार,
डॉक्टर,
इंजीनियर,
साइंटिस्ट्स और सरकारें देखता हूं।
बिकते हुए खेत खलिहान,
बाग और बगीचे देखता हूं।
कटते हुए वृक्ष और फैलते हुए कंक्रीट के जंगल देखता हूं।
तो याद आ जाता है मुझे वह प्राचीन लुप्त हो चुका पढ़े-लिखे बेरोजगारों का गांव।