
सम्पादकीय
जगदीश सिंह सम्पादक
दुनियां के तमाम डाक ख़ाने मुहब्बत से चलते रहे? और कचहरियां नफरत से,——??
कोई हैरत नहीं कि डाक ख़ाने कम हो गए और कचहरियां बढ़ती चली गईं।———-??
समय का खेल देखिए साहब कभी डाकिया के आने का इन्तजार हफ्तों हफ्तों होता रहता था!
डाकिया आया के आवाज पर सारा गांव मोहल्ला टूट पड़ता था!
हाथ में खत आते ही कुछ मुस्कराते कुछ शर्माते तकदीर का फलसफा तलासते खुशियों का सौगात लिए अपने को धन्य समझने लगते थे!
कितना खुशनुमा पल होता था! कोई रोता था !
कोई अपनों की बेवफाई पर घन्टो एकान्त में बैठकर सोचता था!
कभी समय था कि डाकखाना तकदीर का खजाना उड़ेल देता था!
हर माह का पहला हफ्ता परदेशियो के पगार का उद्गार लिए द्वार द्वार दस्तक देने लगता था!
मगर बदलते हालात ने सब कुछ बदल दिया!
वीरान हो गया डाकखाना!
खत्म हो गया डाकिया का गांव में आना जाना!
डाकिया आया!
डाकिया आया!
का शोर मचाते बच्चों का कलरव करता समूहअब कहीं नहीं देखने को मिलता!
अब प्रेम पत्र के विचित्र चाहत की आहट भी नहीं होती!
घुंघट की ओट से चाहत की चोट खाई पत्नी को परदेशी पिया के ख़त का इन्तजार खत्म हो गया!
भगवान का दुसरा स्वरुप लिए हर दरवाजे दरवाजे दस्तक देकर अपनों के भविष्य को समर्पित करने वाले डाकिया को अब लोग पूरी तरह भूल गए हैं?
जरा परिवर्तन का खेल देखिए!
मोहब्बत का पैगाम देने वाला डाकखाना अपने वजूद की जंग लड रहा है!
वहीं नफरत की नफासत तथा देश की जहरीली सियासत का संग पाकर कचहरियों का दायरा बढ़ता जा रहा है।भीड़ बढ़ती जा रही है।
नफरत की धधकती ज्वाला में झूलसता आधुनिक सभ्य समाज इस कदर बौखलाया है कि जीवन के अनमोल लम्हों का तीन हिस्सा कोर्ट कचहरी में ही खत्म कर रहा है।
दिवास्वपन्न हो गया भाईचारा!
अब तो कदम कदम पर बहस हो रही है यह है हमारा!
वह है तुम्हारा!
अपनत्व के घनत्व का महत्व इस कदर खत्म हो गया की फिर कभी नहीं जुट रहा है दिल दुबारा!
आफत के इस दौर में सराफत की चाहत रखने वालों की खैरियत नही फजीहत हो गई है!
कदम कदम पर सतर्क रहने की नसीहत मिल रही है!
घर घर लोगों का दिल जहर से बुझा हुआ है!
मामूली से मामूली बात पर मुकदमे का सौगात जज़्बात में आकर लोग एक दुसरे को दे रहें हैं।
झूठे शान मान अभिमान सम्मान के लिए दिन रात घात प्रतिघात को आत्म सात कर खुराफात का चलन वजूद में आ गया है!
जीवन के अनमोल लम्हों को सम्बृध परिवार के खुशहाल उपवन से विरक्त रहकर खुशनुमा वक्त को स्वार्थ की संलिप्तता में भाग दौड़ कर गुजार देते हैं लोग।
शनै :शनै:उम्र का वैरागी पल छल कपट के सानिध्य में शान्ती का परित्याग कर अभिजात्य जीवन की संकल्पना में विडम्बना को सहचर बनाए दर्द के मर्ज में फर्ज का सम्मवरण पाले सुख शांति का परित्याग कर परिवार के सुखमय भविष्य के निर्माण के लिए सर्वांगीण समर्पित कर जाता है?
मगर उसको मिलता क्या है!–
आखरी सफर के तन्हा रास्ते पर चलते चलते केवलअपमान!
पश्चाताप’
संताप
‘पछतावा
‘और यह तब तक दिल में दर्द बनकर सालता है जब तक उपर वाले के दरबार से आ नहीं जाता है बुलावा!
इन्सानियत की अगेती खेती जो मानव बस्तियों में होती थी उसका क्षरण हो गया !
विलासिता,
वैमनस्यता,
मतलब परस्ती,
की सस्ती पैदावार का प्रचलन बढ़ गया!
घर घर में इसकी निराई गुड़ाई सुबह शाम देखने को कहीं भी मिल जाता है।
गजब का परिवर्तन हुआ नफरत की खेती बेतहाशा बढ़ रही है!
वहीं उल्फत के पौधों में खिला रजनी गन्धा का मोहब्बती सुवासित फूल अपने वसूल के चलते नफरती हवाओं का शिकार होकर विकार के प्रदूषण मे दम तोड रहा है?
विकाश के उदास राह में आदमियत पनाह पाना बन्द कर दिया।अब हर तरफ नफरती जलजला है।प्यार के पैगाम को वितरण करने वाल डाकखाना अन्जाना बन गया! कोर्ट कचहरियो का अब गांव गांव चल निकला सिल सिला है!लोगों का कैसे होगा भला भगवान ही मालिक है।
जयहिंद🕉️🙏🏾🙏🏾
जगदीश सिंह सम्पादक