
*धनखड़ का इस्तीफा: क्या सिर्फ स्वास्थ्य कारण, या सत्ता की ऊपरी परतों में चल रही है कोई चुप्पी भरी हलचल?*
भारत के संवैधानिक ढांचे में अचानक एक गंभीर कंपन तब महसूस हुआ, जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने तत्काल प्रभाव से इस्तीफा दे दिया। उनका कहना है कि “स्वास्थ्य कारणों” के चलते अब वे कार्यभार नहीं संभाल सकते। लेकिन क्या यह स्पष्टीकरण पर्याप्त है? क्या सिर्फ स्वास्थ्य का हवाला देकर लोकतंत्र के दूसरे सर्वोच्च पद से यूं हट जाना एक सामान्य प्रक्रिया है, या फिर सत्ता की परछाइयों में कुछ और भी आकार ले रहा है?
🔍 घटना या संकेत?
धनखड़ का इस्तीफा ऐसे समय पर आया है, जब संसद का मानसून सत्र शुरू हो चुका है। एक ओर केंद्र सरकार विपक्ष के तीखे सवालों और विधायी दबावों के बीच नए सत्र में प्रवेश कर रही थी, वहीं दूसरी ओर सभापति (उपराष्ट्रपति) का अचानक त्यागपत्र राजनीतिक हलचल का कारण बन गया।
विपक्ष ने सवाल उठाए — “क्या यह सिर्फ स्वास्थ्य का मामला है?” कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने इसे “असामान्य” करार देते हुए कहा, “जो दिख रहा है, उससे कहीं अधिक गहराई है।” यह वक्तव्य अपने आप में संकेत करता है कि राजनीतिक हलकों में इस इस्तीफे को एक ‘घटना’ से अधिक ‘संकेत’ के रूप में देखा जा रहा है।
संवैधानिक जिम्मेदारी और सार्वजनिक जवाबदेही
उपराष्ट्रपति भारत का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद होता है। केवल स्वास्थ्य कारण बताकर चुपचाप पद त्यागना — वह भी बिना किसी सार्वजनिक संवाद, प्रेस कॉन्फ्रेंस या संसदीय स्पष्टीकरण के — एक लोकतांत्रिक रिक्तता उत्पन्न करता है।
धनखड़ ने अपने कार्यकाल में संसद से लेकर विश्वविद्यालयों तक कई बार मुखर राजनीतिक टिप्पणियाँ की थीं। क्या उनके विचार सत्ता की मुख्यधारा से टकराने लगे थे? या कोई ऐसा दबाव था जिससे पीछे हटना ही एकमात्र विकल्प बन गया?
सत्ता का अंतर्कलह या रणनीतिक पुनर्संरचना?
राजनीतिक विश्लेषकों की राय दो हिस्सों में बंटी हुई है:
1. एक वर्ग का मानना है कि धनखड़ का इस्तीफा भविष्य की किसी बड़ी भूमिका की तैयारी हो सकता है — संभव है कि उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल या किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर उच्च प्रतिनिधि नियुक्त किया जाए।
2. दूसरा वर्ग इसे सत्ता के भीतर किसी असहमति का संकेत मानता है — एक ऐसा कदम जो दर्शाता है कि ऊपरी पदों पर सब कुछ वैसा नहीं जैसा बाहर से दिखता है।
जनता क्या समझे?
भारत का लोकतंत्र केवल संस्थागत ढांचे से नहीं, बल्कि नागरिकों के विश्वास से चलता है। जब इतना बड़ा संवैधानिक पद बिना पूर्व संकेत के खाली होता है, तो उसका स्पष्टीकरण भी उतना ही पारदर्शी और व्यापक होना चाहिए। केवल “डॉक्टर की सलाह” जैसे शब्द लोकतंत्र को तसल्ली नहीं देते।
सत्ता के गलियारों में उठती एक मौन आंधी
धनखड़ का इस्तीफा एक ऐसा अध्याय बन गया है जिसमें शब्द कम हैं, लेकिन अर्थ गहरे हैं। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था अब पारदर्शिता से अधिक रणनीति पर आधारित हो गई है?
यह इस्तीफा सिर्फ एक पत्र नहीं,
बल्कि एक राजनीतिक पदचिह्न हो सकता है — जो संकेत देता है कि सत्ता के ऊपरी गलियारों में चुप्पी के पीछे बहुत कुछ बोला जा रहा है।